________________
१६४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितहै, विभाव रागद्वेष मोहरूप प्रवत्तै ताकै संसारसंबंधी दुःख होय हैं, अर द्रव्यरूप है सो पुद्गलका विभाव है या संबंधी जीवकै दुःख सुख होय है तातै भावही प्रधान है, ऐसैं न होतें केवली भगवानकै भी सांसारिक सुख दुःखको प्राप्ति आवै, सो है नांही । ऐसें जीवके ज्ञानदर्शन अर रागद्वेष मोह ये तो स्वभाव विभाव हैं अर पुद्गलके स्पर्शादिक अर स्कंधादिक स्वभाव विभाव हैं तिनिमैं जीवका हित अहित भाव प्रधान है पुद्गलद्रव्यसंबंधी प्रधान नाही, बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है, उपादान विना निमित्त किछू करै नांही; ये तो सामान्यपणे स्वभावका स्वरूप है बहुरि याहीका विशेष सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तो जीवका स्वभाव भाव हैं तिनिमैं सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है याविनां सर्व बाह्य क्रिया मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र हैं सो विभाव हैं सो संसारका कारण है, ऐसे जाननां ॥२॥
आगैं कहै है जो बाह्य द्रव्य निमित्त मात्र है सो याका अभाव जीवकै भावकी विशुद्धिताका निमित्त जाणि बाह्यद्रव्यका त्याग कीजिये है;गाथा-भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
वाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥ ३ ॥ . संस्कृत-भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रंथस्य क्रियते त्यागः ।
बाह्यत्यागः विफलः अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्य ॥ ३ ॥ ___ अर्थ—बाह्य परिग्रहका त्याग कीजिये है सो भावकी विशुद्धि ताकै आर्थ कीजिए है बहुरि अभ्यंतर परिग्रह जो रागादिक तिनिकरि युक्त है ताकै बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है ।
भावार्थ-अंतरंगभावविना बाह्य त्यागादिककी प्रवृत्ति निष्फल है यह प्रसिद्ध है ॥३॥