________________
अष्टपाहुडमें बोधपाहुडकी भाषावचनिका। १३१ है ऐसा आढूही कर्म बंधके अभावकी अपेक्षा भावमोक्ष कहिये, बहुरि उपमारहित गुणनिकार आरूढ है सहित है ऐसे गुण छद्मस्थमैं कहूंही नाही तारौं उपमारहित गुण जामैं है ऐसा अरहंत होय ॥ ___ भावार्थ-केवल नाममात्रही अरहंत होय ताकू अरहंत न कहिए ऐसे गुणनिकरि सहित होय ताकू नाम अरहंत कहिये ॥ __ आगै फेरि कहै है;गाथा-जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्य पावं च ।
हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥ संस्कृत-जराव्याधिजन्ममरणं चतुर्गतिगमनं पुण्यं पापं च ।
हत्वा दोषकमाणि भूतः ज्ञानमयश्चाहेन ॥३०॥ अर्थ-जरा कहिये बुढापा अर व्याधि कहिये रोग अर जन्म मरण च्यार गतिनिवि. गमन पुण्य बहुरि पाप बहुरि दोषनिका उपजावनेवाला कर्म तिनिका नाशकार अर केवल ज्ञानमयी अरहंत हुवा होय सो अरहंत है ॥ __ भावार्थ-पहली गाथामैं तौ गुणनिका सद्भावकरि अरहंत नाम कह्या बहुरि इस गाथामैं दोषनिका अभावकरि अरहंत नाम कया । तहां राग द्वेष मद मोह अरति चिंता भय निद्रा विषाद खेद विस्मय ये ग्यारह दोष तौ घातिकर्मके उदयतें होय हैं, बहुरि क्षुधा तृषा जन्म जरा मरण रोग खेद ये अघातिकर्मके उदयतें होय हैं; तहां इस गाथमैं जरा रोग जन्म मरण च्यार गतिनिमैं गमनका अभाव कहनेंतें तौ अघातिकर्मक् भये दोषनिका अभाव जाननां जाते अघातिकर्ममैं इनि दोषनिकी उपजावनहारी पापप्रकृतिनिका उदयका अरहंतकै अभाव है, बहुरि रागद्वेषादिक दोषनिका घातिकर्मके अभावतें अभाव है। इहां कोई पूछ-मरणका