________________
२४६ पंडित जयचंद्रजी छाबडा विर. चेतवशुद्धि ता• प्रात है । ऐसें दोऊ प्रकार दोऊ शुभाशुभ कर्म बांधे है यह संक्षेपकरि जिन कह्या ॥ ___ भावार्थ--पूर्वं कह्या जिनवचनपराङ्मुल मियात्वसहित जीव तिसतै विपरीत कहिये जिन आज्ञाका श्रद्धानी सम्यादृष्टा जीव है सो विशुद्धभावकू प्राप्त भया शुभकर्म बांधे है जाते याके सम्यक्त्वके माहात्म्यकरि ऐसे उज्ज्वल भाव है ताकरि मिष्टत्वकी लार बंध होती पापप्रकृतिनिका अभाव है, कदाचित् किंचित् कोई पापप्रकृति बधे है तिनिका अनुभाग मंद होय है कळू तीव्र पापफल का दाता नांही तातै सम्यग्दृष्टी शुभकर्महीका बांधनेवाला है । ऐसें शुभ अशुभ कर्मके बंधका संक्षेपकार विधान सर्वज्ञदेव. कया है सो जाननां ॥ ११९ ॥
आगें कहै है जो-हे मुने ! तू ऐसी भावनाकरि;-- गाथा--णाणावरणादीहिं य अहहिं कम्मेहि बेढिओ य अहं ।
डहिऊण इण्हि पयडमि अर्णतणाणाइगुणचित्तां ११९ संस्कृत--ज्ञानावरणादिभिः च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्च अहं ।
दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनंतज्ञानादिगुणचेतनां। अर्थ--हे मुनिवर ! तू ऐसी भावनाकरि जो मैं ज्ञानवरणकू आदि लेकरि आठ कर्म हैं तिनि बेढयाहूं यातै इनिळू भस्मकरि अनंतज्ञानादि गुण निजस्वरूप चेतनाकू प्रगट करूं ।
भावार्थ-आपकू कर्मनिकरि बेढया मानैं अर तिनिकरि अनंतज्ञानादि गुण आच्छादे मानैं तब तिनि कमानेका नाश करनां विचार, तातें कर्मनिका बंधकी अर तिनिका अभावकी भावना करनेका उपदेश है, अर कर्मनिका अभाव शुद्धस्वरूपके ध्यावनेते होय है सो करनेका उपदेश है। कर्म आठ हैं ते ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतराय ये तौ घातिया कर्म हैं; इनिकी प्रकृति सैंतालीस हैं, तिनिमैं केवलज्ञाना