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३८२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिताकरनां । ऐसे निंद्य आचरणवालेनिकू साधु मोक्षमार्गी न माननें, तिनिकू वंदन पूजन न करनां यह उपदेश है ॥ .
छप्पय । लिंग मुनीको धारि पाप जो भाव बिगाडै
सो निंदाळू पाय आपको अहित विथारै । ताकू पूजै थुवै वंदना करै जु कोई
ते भी तैसे होइ साथि दुरगतिकू लेई ॥ याते जे सांचे मुनि भये भाव शुद्धि मैं थिर रहे । तिनि उपदेश्या मारग लगे ते सांचे ज्ञानी कहे॥१॥
दोहा। अंतर बाह्य जु शुद्ध जे जिनमुद्राकुं धारि । भये सिद्ध आनंदमय बंदू जोग संवारि ॥२॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यस्वामि विरचित
श्रीलिंगप्राभृतशास्त्रकी जयपुरनिवासि पं. जयचन्द्रजीछाबड़ाकृतदेशभाषामयवनिका समाप्त ॥ ७ ॥