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३२ पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
भावार्थ-तत्वार्थका श्रद्धान सो तो व्यवहार” सम्यक्त्व है, बहुरि अपना आत्मस्वरूपका अनुभव करि तिसकी श्रद्धा प्रतीति रुचि आचरण सो निश्चयतें सम्यक्त्व है, सो यह सम्यक्त्व आत्मा” जुदा वस्तु नाही है आत्माहीका परिणाम है सो आत्माही है । ऐसे सम्यक्त्व. अर आत्मा एकही वस्तुहै यह निश्चयका आशय जाननां ॥ २ ॥
आगैं कहैं हैं जो यह सम्यग्दर्शन है सो सर्व गुणनिमैं सार है ताहि धारण करो;गाथा-एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ संस्कृत--एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन ।
__सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥ ___ अर्थ-ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देवनैं कह्या दर्शन है सो गुणनिवि अर दर्शन ज्ञान चारित्र इनि तीन रत्ननिविौं सार है उत्तम है, बहुरि मोक्षमंदिरके चढ़नेकू प्रथम पैडी है, सो आचार्य कहैं हैं हे भव्य जीव हो ! तुम याकू अंतरंग भावकरि धारण करो, बाह्य क्रियादिक करि धारण किया तौ परमार्थ नाहीं अंतरंगकी रुचिकरि धारण मोक्षका कारण है ॥ २१॥ ___ आगैं हैं हैं जो श्रद्धान करै ताहीकै सम्यक्त्व होय है;गाथा-जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सकेइ तं च सद्दहणं ।
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ॥ २२ ॥ संस्कृत-यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य
च श्रद्धानम् । केवलिजिनैः भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥२२॥