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३२६ पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचितप्रतिकूल है कर्ममात्रहीक विर्षे जाकी बुद्धि गत होय रही है; ऐसैं कोऊ
और भी मानें सौ ऐसाही जाननां ॥ ५६ ।। ___ आगैं कहै है जो ज्ञान चारित्र रहित होय अर तप सम्यक्त्व रहित होय अर अन्य भी क्रिया भावपूर्वक न होय तो ऐसैं केवल लिंग भेषमात्रही करि कहा सुख है ? किछू भी नाही;गाथा--णाणं चरित्तहीणं देसणहीणं तवेहिं संजुत्तं ।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥५७॥ संस्कृत-ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहींनं तपोभिः संयुक्तम् ।
अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम् ॥५७॥ अर्थ-जहां ज्ञान तौ चारित्ररहित है, बहुरि जहां तपकरि तौ युक्त है अर दर्शन जो सम्यत्क्व ताकार रहित है, बहुरि अन्य भी आवश्यक आदि क्रिया हैं तिनि विर्षे शुद्धभाव नाही है; ऐसैं लिंग जो भेष ताके ग्रहणविर्षे कहा सुख है ॥ __ भावार्थ-कोई मुनि भेषमात्र तौ मुनि भयो अर शास्त्र भी पढ़ें हैं ताकू कहै है जो-शास्त्र पढि ज्ञान तो किया परन्तु निश्चय चारित्र जो शुद्ध आत्माका अनुभवरूप तथा बाह्य चारित्र निर्दोष न किया अर तपका क्लेश बहुत किया अर सम्यक्त्व भावना न भई अर आवश्यक आदि बाह्य क्रियाकरी अर भाव शुद्ध न लगाया तो ऐसे बाह्य भेषमात्रमै तो क्लेश ही भया कुछ शान्तभावरूप सुख तौ न भया अर यहु भेष परलोकके सुखके विौं भी कारण न भया; तातै सम्यक्त्वपूर्वक भेष धारनां श्रेष्ठ है ॥ ५७ ॥
आज सांख्यमती आदिका आशयका निषेध क है; गाथा-अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी ।
सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥५८॥