________________
पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
संस्कृत-भावविमुक्तः मुक्तः न च मुक्तः बांधवादिमित्रेण । इति भावयित्वा उज्झय गन्धमाभ्यन्तरं धीर ! ॥ ४३ ॥ अर्थ — जो मुनि भावनिकरि मुक्त भया ताकूं मुक्त कहिये अर बांधव आदि कुटुंब तथा मित्र आदिकरि मुक्त भया ताकूं मुक्त न कहिये यात हे धीर ! मुनि तू ऐसा जानिकरि अभ्यन्तरकी वासनांकूं छोड़ि ॥
१९०
भावार्थ- जो बाह्य बांधव कुटुंब तथा मित्र इनिकूं छोड़िकर निर्प्रथ भया अर अभ्यन्तरका ममत्व भावरूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट विषै रागद्वेष वासना न छूटीतौं ताकूं निर्ग्रथ न कहिये, अभ्यन्तर वासना छूटे निग्रंथ है तातें यह उपदेश है जो अभ्यंतर मिथ्यात्व कषाय छोड़ि भावमुनि होनां ॥ ४३ ॥
आ कहे हैं जे पूर्वै मुनि भये तिनिनैं भाव शुद्ध विना सिद्धि न पाई तिनिका उदाहरणमात्र नाम कहै है, तहां प्रथमही बाहुवलीका उदाहरण कहै है:
गाथा - देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर ! अत्तावणेण जादो बाहुवली कित्तियं कालं ||४४ || संस्कृत -- देहादित्यक्तसंग ः मानकषायेन कलुषितः धीर ! । आतापनेन जातः बाहुवली कियन्तं कालम् ||४४||
अर्थ- देखो, बाहुवली श्री ऋषभदेवका पुत्र तो देहादिकतैं छोड्या है परिग्रह जानें ऐसा निद्र्थ मुनि भया तौऊ मानकषाय करि कलुष परिणामरूप भया संता केतेयक काल आतापन योग करि तिष्ट्या सिद्धि नपाई ॥
भावार्थ --- बाहुबली तैं भरत चक्रवर्ती विरोध करि युद्ध आरंभ्या तहां भरत अपमान पाया तापीछें बाहुबली विरक्त होय निद्र्थ मुनि भये परन्तु कछू