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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितपार नाही, सर्व लोकालोककू जाननेवाला ज्ञान है ऐसाही दर्शन है ऐसाही चरित्र है तथापि धातिकर्मके निमित्त अशुद्ध हैं ज्ञान दर्शन चारित्ररूप हैं तातै श्रीजिनदेव तिनिके शुद्ध करनें• इनिका चारित्र आचरण करना दोय प्रकार कह्या है ॥ ४ ॥
आगें दोय प्रकार कह्या सो कहैं हैं;गाथा-जिणणागदिटिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥ ५ ॥ संस्कृत-जिनज्ञानदृष्टिशुद्धं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि ॥५॥ अर्थ-प्रथम तौ सम्यक्त्वका आचरणस्वरूप चारित्र है सो कैसा हैजिनदेवका ज्ञान दर्शन श्रद्धान ताकार किया हुवा शुद्ध है, बहुरि दूसरा संयमका आचरणस्वरूप चारित्र है सोभी जिनदेवका [न करि दिखाया हुवा शुद्ध है ॥
भावार्थ--चारित्र दोय प्रकार कह्या तहां प्रथम तौ सम्यक्त्वका आचरण कह्या सो जो सर्वज्ञका आगममैं तत्वार्थका स्वरूप कह्या ताकू यथार्थ जानि श्रद्धान करनां अर ताके शंकादि अतीचार मल दोष कहे तिनिका परिहार कारि शुद्ध करनां अर ताके निःशंकितादि गुणनिका प्रगट होनां सो सम्यक्त्वचरणचारित्र है, बहुरि जो महाव्रत आदि अंगीकार कार सर्वज्ञके आगममैं कमा तैसा संयमका आचरण करनां अर ताके अतीचार आदि दोषनिका दूरि करनां सो संयमचरण चारित्र है, ऐसैं संक्षेपकार स्वरूप कया ॥ ५॥ ___ आगैं सम्यक्त्वचरण चारित्रके मल दोषनिका परिहार करि आचरण करनां ऐसैं कहै है;