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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
__ अर्थ-जो दिगंबर मुद्राका धारक मुनि इन्द्रिय मनका वश करना छह कायके जीवनिकी दया करनां ऐसैं संयम करि तौ सहित होय बहुरि आरंभ कहिये गृहस्थके जे ते आरंभ हैं तिन” अर बाह्य अभ्यंतर परि. ग्रह” विरक्त होय तिनिमैं नहीं प्रवत्र्त तथा आदि शब्द करि ब्रह्मचर्य आदि करि युक्त होय सो देव दानव करि सहित मनुष्यलोक विर्षे वंदने योग्य है अन्य भेषी परिग्रह आरंभादि करि युक्त पाखंडी वंदिवे योग्य नाही है ॥ ११ ॥ ___ आणु फेरि तिनिकी प्रवृत्तिका विशेष कहै है;गाथा-जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता ।
ते होंदि वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ॥१२॥ संस्कृत-ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहते शक्तिशतैः संयुक्ताः।
ते भवंति वंदनीयाः कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ॥ १२ ॥ अर्थ-जे साधु मुनि अपनी शक्तिके सैंकडानिकरि युक्त भये संते क्षुधा तृषादिक बाईस परीषहनिकू सहैं हैं ते साधु वंदनेयोग्य हैं, कैसे हैं ते-कर्मनिका क्षयरूप तिनिकी निर्जरा तावि प्रवीण हैं। ___ भावार्थ-जे बडी शक्तिके धारक साधु हैं ते परीषहनिळू सहैं हैं परीषह आये अपने पदतै च्युत नाही होय हैं तिनिकैं कर्मनिकी निर्जरा होय है ते वंदने योग्य हैं ॥ १२ ॥ ___ आगैं कहै है जो दिगंबर मुद्रा सिवाय कोई वस्त्र धारे सम्यग्दर्शन ज्ञानकरि युक्त होंय ते इच्छाकार करनेयोग्य हैं;गाथा-अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेणसम्म संजुत्ता ।
चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥ १ 'होति' षट्पाहुड में ऐसा हैं।