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पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित
आगें कहैं हैं जो इच्छाकारका प्रधान अर्थकूं नाहीं जाने है अर अन्यधर्मका आचरण करे है सो सिद्धिकूं नांहीं पावै है; - गाथा -- अह पुण अप्पा गिच्छदि धम्माई करेड़ गिरव सेसाई । तह विणावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ॥ १५ ॥ संस्कृतः - अथ पुनः आत्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषान् तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः १५
अर्थ — 'अथ पुनः' शब्दका ऐसा अर्थ जो — पहली गाथा मैं कह्याथा जो इच्छाकारका प्रधान अर्थ जानें सो आचरण करि स्वर्गसुख पावै, सो अब फेरि कहै है जो - इच्छाकारका प्रधान अर्थ आत्माका चाहनाहै अपने स्वरूपविषै रुचि करना है सो याकूं जो नांही इष्ट करे है अर अन्य धर्म के समस्त आचरण करें है तौउ सिद्धि कहिये मोक्षकूं नहीं पावै हैं बहुरि ताकूं संसारविषै ही तिष्ठनेवाला कला है |
भावार्थ — इच्छाकारका प्रधान अर्थ आपका चाहनां है सो जाकै अपनें स्वरूपकी रुचिरूप सम्यक्त्व नांही ताकै स मुनि श्रावक के - आचरणरूप प्रवृत्ति मोक्षका कारण नांही ॥ १५ ॥
आइसही अर्थ दृढ़कर उपदेश करे है
गाथा - एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेइ मोक्खं तं जाणिज्जइ पत्तेण ॥ १६ ॥ संस्कृत - एतेन कारणेन च तं आत्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन ।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ १६ ॥
अर्थ —— कह्या जो आत्माकूं इष्ट न करै है ताकै सिद्धि नहीं है तिसही कारण करि हे भव्यजीव हौ ! तुम तिस आत्माकूं श्रद्धौताका