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१०२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितागाथा-कोहभयहासलोहामोहाविपरीयभावणा चेव ।
विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होति ॥३३॥ संस्कृत-क्रोधभयहास्यलोभमोहविपरीतभावनाः च एव ।
द्वितीयस्य भावना इमा पंचैव च तथा भवंति ॥३३॥ अर्थ-क्रोध भय हास्य लोभ मोह इनित विपरीत कहिये उलटा इनिका अभाव ये द्वितीय व्रत जो सत्यमहानत ताकी भावना हैं । ___ भावार्थ-असत्यवचनकी प्रवृत्ति होय है सो क्रोधलें तथा भयतें तथा हास्य तथा लोभ तथा परद्रव्यतै मोहरूप मिथ्यात्वनैं होय है सो इनिका त्याग भये सत्य महाव्रत दृढ़ रहै है। ___ बहुरि तत्त्वार्थसूत्रमैं पांचमी भावना अनुवीचीभाषण कही है सो याका अर्थ यहु जो-जिनसूत्रकै अनुसार वचन बोलै अर इहां मोहका अभाव कह्या सो मिथ्यात्वके निमित्त” सूत्रविरुद्ध कहै मिथ्यात्वका अभाव भये सूत्रविरुद्ध न कहै सोही अनुवीची भाषणकाभी यह ही अर्थ भया, यामैं अर्थ भेद नाही है ॥ ३३॥
आरौं अचौर्य महाव्रतकी भावनांकू कहै है;गाथा-मुण्णायारणिवासो विमोचितावास जं परोधं च ।
एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मीसंविसंवादो ॥३४॥ संस्कृत-शून्यागारनिवासः विमोचितावासः यत् परोधं च । व एषणाशुद्धिसहितं साधर्मिसमविसंवादः ॥ ३४ ॥
अर्थ-शून्यागार कहिये गिरि गुफा तरुकोटरादिविर्षे निवास करना, बहुरि विमोचितावास कहिये जो लोग काहू कारणनै छोडि दिया ऐसा गृह प्रामादिक तामैं निवास करनां, बहुरि परोपरोध कहिये परका जहां उपरोध न करिये वस्तिकादिककू अपनाय परकू वर्जनां ऐसे न करना,