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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
अर्थ-जिस प्रव्रज्याविर्षे पशु तिर्यंच महिला ( स्त्री ) पंढ ( नपुं सक ) इनिका संग तथा कुशील ( व्यभिचारी ) पुरुषका संग न करै है बहुरि स्त्री राजा भोजन चोर इत्यादिककी कथा ते विकथा तिनिकू न करें, तो कहा करै ? स्वाध्याय कहिये शास्त्र जिनवचननिका पठन पाठन अर ध्यान कहिये धर्म शुक्ल ध्यान इनिकरि युक्त रहै; प्रव्रज्या ऐसी जिनदेव कही है। ___ भावार्थ-जैनदीक्षा लेकरि कुसंगति करै विकथादिक करै प्रमादी रहै तो दीक्षाका अभाव होजाय यातै कुसंगति निषिद्ध है अन्य भेषकी ज्यों यह भेष नाही है ये मोक्षमार्ग है अन्य संसारमार्ग हैं ॥ ५७ ।।
आण फेरि विशेष कहैं हैं;गाथा--तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य ।
सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पबन्जा एरिसा भणिया ।। ५८ ।। संस्कृत-तपोवतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च ।
शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ५८॥ अर्थ—प्रव्रज्या जिनदेव ऐसी कही है-कैसी है--तप कहिये बाह्य अभ्यंतर बारह प्रकार अर व्रत कहिये पांच महाव्रत अर गुण कहिये इनिके भेदरूप उत्तरगुण तिनिकरि शुद्ध है, बहार कैसी है-संयम कहिये इन्द्रिय मनका निरोध षट्कायका जीवनिकी रक्षा सम्यक्त्व कहिये तत्वार्थ श्रद्धान लक्षण निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन बहुरि इनिका गुण कहिये मूलगुण तिनिकरि शुद्ध अतीचार रहित निर्मल है, बहुरि जे प्रव्रज्याके गुण कहे तिनि करि शुद्ध है, भेषमात्र ही नाही; ऐसी शुद्ध प्रव्रज्या कही है इनि गुणनि विना प्रव्रज्या शुद्ध नांही है ।