________________
अष्टपाहुड भावपाहुडकी भाषावचनिका । २५७
गाथा - तित्थयरगणहराई अन्भुदयपरंपराई सोक्खाई ।
पार्वति भावसहिया संखे वि जिणेहिं वज्जरियं ॥ १२८॥ संस्कृत - तीर्थ करगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि । प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम् १२८ अर्थ — जे भावसहित मुनि हैं ते अभ्युदयसहित तीर्थंकर गणधर आदि पदवी सुख तिनिकूं पावैं हैं यह संक्षेपकरि कया है ॥
भावार्थ—तोर्थंकर गणधर चक्रवर्ती आदि पदवी के सुख बडे अभ्यु - दयसहित हैं तिनहिं भावसहित सम्यग्दृष्टी मुनि हैं ते पावैं हैं, यह सर्व उपदेशका संक्षेपकरि उपदेश कया है तातैं भावसहित मुनि होनां योग्य है ॥ १२८ ॥
आगें आचार्य कहै है जो जे भावश्रमण हैं ते धन्य हैं तिनिकूं हमारा नमस्कार होहू ;गाथा -- ते घण्णा ताण णमो दंसणवरणातसुद्वाणं ।
-
भावसहियाण णिचं तिविहेण पायाणं ॥ १२९ ॥ संस्कृत - ते धन्याः तेभ्यः नमः दर्शनवरज्ञान चरणशुद्धेभ्यः । भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः १२९ सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ विशिष्ट ज्ञान भावकरि सहित हैं, बहुरि जिनिकै ऐसे हैं ते धन्य हैं
अर्थ — आचार्य कहै है जो जे मुनि अर निर्दोष चारित्र इनिकारे शुद्ध हैं याही प्रणष्ट भई है माया कहिये कपटपरिणाम तिनिकै आर्थ हमारा मन वचन कायकरि सदा नमस्कार होहु || भावार्थ-भावलिंगीनिमैं दर्शन ज्ञान चारित्रकरि जे शुद्ध हैं तिनिकी आचार्यनिकैं भक्ति उपजी है तातैं तिनिकूं धन्य कहिकरि नमस्कार किया है सो युक्त है, जिनिकै मोक्षमार्गविषै अनुराग है जे तिनिमैं मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिमैं प्रधानता दीखै तिनिकूं नमस्कार करैं ही करें ॥ १२९ ॥
अ० व० १७