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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित -
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छोडनेका उपदेश है । बहुरि धर्मशुक्ल ध्यान हैं ते स्वर्ग मोक्षके कारण हैं इनिकूं कबहूं घ्याये नांही तातैं तिनिकूं ध्यावनेका उपदेश है। तहां ध्यानका स्वरूप एकाग्रचिंतानिरोध का है - तहां धर्म ध्यान मैं तौ धर्मानुरागका सद्भाव है सो धर्मकै मोक्षमार्गके कारणविषै रागसहित एकाग्रचितानिरोध होय है तातैं शुभरागके निमित्ततैं पुण्यबंध भी हो है अर विशुद्धता के निमित्ततैं पापकर्मकी निर्जराभी होय है । बहुरि शुक्रध्यानमैं आठवें नवमें दशमें गुणस्थान तौ अव्यक्तराग है तहां अनुभव अपेक्षा उपयोग उज्ज्वल है तातैं शुक्लनाम पाया है अर या ऊपरिके गुणस्थाननिमैं राग कषायका अभावही है तातैं सर्वथाही उपयोग उज्ज्वल है तहां शुक्लध्यान युक्तही है । तहां एता विशेष और है जो उपयोगका एकाग्रपणां रूप ध्यानकी स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी कही है तिस अपेक्षा तेरमें चौदमें गुणस्थान ध्यानका उपचार है अर योगक्रिया के थंमनकी अपेक्षा ध्यान कया है । यह शुक्लध्यान कर्मकी निर्जराकरि जीवकूं मोक्ष प्राप्त करै है, ऐसें ध्यानका उपदेश जाननां ॥ १२९ ॥
आगैं कहै है यह ध्यान भावलिंगी मुनिनिकूं मोक्ष करै है; - गाथा - जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति ।
छिंदति भावसवणा झाणकुठारेहिं भवरुक्खं ।। १२२|| संस्कृत---ये केsपि द्रव्यश्रमणा इन्द्रियसुखाकुलाः न छिंदन्ति । छिन्दन्ति भावश्रमणाः ध्यानकुठारैः भववृक्षम् १२२
अर्थ — केई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं ते तो इन्द्रियसुखविषै व्याकुल हैं। तिनकै यह धर्मशुक्लध्यान होय नांही ते तौ संसाररूप वृक्षके काटनेकूं समर्थ नांही हैं, बहुरि जे भावलिंगी श्रमण हैं ते ध्यानरूप कुहाडेनिकरि संसाररूप वृक्षकूं का हैं ॥