________________
२५८
अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका ।
आगे कहै है - जे भावश्रमण है ते देवादिककी ऋद्धि देखि मोहकं प्राप्त न होय है;
गाथा - इड्रिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिस अमरखयरेहिं ।
तेहिं विण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ॥ १३० ॥ संस्कृत-- ऋद्धिमतुलां विकुर्वद्भिः किंनरकिंपुरुषामरखचरैः । तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावितः धीरः १३० अर्थ — जिनभावना जो सम्यक्त्वभावना ताकरि वासित जो जीव है। सो किंनर किंपुरुष देव अर कल्पवासी देव अर विद्याधर इनिकरि विक्रि यारूप विस्तारी जो अतुल ऋद्धि तिनिकार मोहकूं प्राप्त न होय है जात कैसा है सम्यग्दृष्टी जीव धीर है दृढबुद्धि है निःशंकित अंगका धारक है ॥
----
भावार्थ — जिसकै जिनसम्यक्त्व दृढ है तिसकै संसारकी ऋद्धि तृण चत् है परमार्थसुखही की भावना है विनाशीक ऋद्धिकी वांछा काहेकुं होय ? ॥ १३० ॥
आगैं इसहीका समर्थन है जो — ऐसी ऋद्धि ही न चाहै तौ अन्य सांसारिक सुखकी कहा कथा ! ;--
गाथा -- किं पुण गच्छ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं । जाणतो पस्तो चिंततो मोक्ख मुणिधवलो ॥ १३१ ॥ संस्कृत - किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानां अल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवलः ॥ १३१ ॥ अर्थ — सम्यग्दृष्टी जीव पूर्वोक्त प्रकारकी ही ऋद्धिकं न चाहै तौ मुनिधवल कहिये मुनिप्रधान है सो अन्य जे मनुष्य देवनिके सुख
१ – संस्कृत मुद्रित प्रतिमें 'विकृतां' ऐसा पाठ है ।