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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
प्रतिमा देखनेवालाकै शांत भाव होयहै ध्यानकी मुद्राका स्वरूप जान्या जाय है वीतराग धर्मः अनुराग विशेष होने तैं पुण्यबंध होय है तातें इनिकू भी छह कायके जीवनिके हितके करनेवाले उपचार करि कहिये, अर जिनमंदिर वस्तिका प्रतिमा बनावै तामैं तथा पूजा प्रतिष्ठा करनेमैं आरंभ होयहै तामैं किछू हिंसा भी होयहै सो ऐसा आरंभ तो गृहस्थका कार्य है यामैं गृहस्थ• अल्प पाप कह्याहै पुण्य बहुत कह्याहै जातें गृहस्थकी पदवीमैं न्यायकार्य करि न्यायपूर्वक धन उपार्जन करनां रहनेंकू जायगा बनावनां विवाहादिक करनां यत्नपूर्वक आरंभ करि आहारादिक आप करि अर खानां इत्यादिक कार्यनिमैं यद्यपि हिंसा होयहै तोऊ गृहस्थकू इनिका महापाप न कहिये, गृहस्थकै तौ महापाप मिथ्यात्वका सेवनां अन्याय चोरी आदिकरि धन उपार्जनां त्रस जीवनिकू मारि मांस आदि अभक्ष्य खानां परस्त्री सेवा करनां ये महापाप हैं, अर गृहस्थाचार छोड़ मुनि होय तब गृहस्थके न्यायकार्य भी अन्याय ही हैं, अर मुनिकै भी आहार आदिकी प्रवृत्तिमैं किळू हिंसा होय है ताकरि मुनिकू हिंसक न कहिये तैसैं ही गृहस्थकै न्यायपूर्वक पदवीयोग्य आरंभके कार्यनिमैं अल्प पापही कहिये, तातै जिनमंदिर वस्तिका पूजा प्रतिष्ठाके कार्यनिमैं आरंभका अल्प पापहै, अर मोक्षमार्गमैं प्रवर्त्तवालेनिनै अति अनुराग होयहै अर तिनिकी प्रभावना करै है तिनि• आहारदानादिक दे हैं तिनिका वैयावृत्त्यादि करै है सो ये सम्यक्त्वका अंग हैं अर महान पुण्यका कारण है तातै गृहस्थकू सदा करना उचितहै, अर गृहस्थ होय ये कार्य न करै तौ जानिये याकै धर्मानुराग विशेष नाहीं।। ___ इहां फेरि कोई कहै जो गृहस्थकू सरै नाही ते तो करैही करै अर धर्मपद्धति आरंभका कार्यकरि पाप क्यौं मिलावै सामायिक प्रतिक्रमण प्रोषध आदिकरि पुण्य उपजावै । ताकू कहिये—जो तुम ऐसैं कहौ