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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
इस मानुषभवकू पायकै अन्य चारित मति धरो भविजीवनिळू उपदेश यह गहिकरि शिवपद संचरो॥१॥
दोहा। बंदू मंगलरूप जे अर मंगलकरतार । पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हितकार ॥२॥ इहां कोई पूछ-जो ग्रंथनिमैं जहां तहां पंचणमोकारकी महिमा बहुत लिखी, मंगलकार्यमैं विघ्नके मेटनेंकू यही प्रधान कह्या, अर यामैं पंच परमेष्टीकू नमस्कार है सो पंचपरमेष्ठीकी प्रधानता भई, पंचपरमेष्ठीकू परम गुरु कहे तहां याही मंत्रकी महिमा तथा मंगलरूपपणा अर यातें विघ्नका निवारण अर पंचपरमेष्ठीकै प्रधानपणां आ गुरुपणां अर नमस्कार करने योग्यपणां कैसे है ? सो कहनां । ___ताका समाधानरूप कळूक लिखिये है:-तहां प्रथम तौ पंचणमोकार मंत्र है, ताके पैंतीस अक्षर हैं, सो ये मंत्रके बीजाक्षर हैं तथा इनिका जोड सर्व मंत्रनिः प्रधान है, इनि अक्षरनिका गुरु आम्नायतें शुद्ध उच्चारण होय तथा साधन यथार्थ होय तब ये अक्षर कार्यमैं विघ्नके निवारणकू कारण हैं ता” मंगलरूप हैं । जो 'म' कहिये पाप ताळू गाले ताकू मंगल कहिये तथा 'मंग' कहिये सुखकू ल्यावै दे ताकू मंगल कहिये सो यात दोऊ कार्य होय हैं। उच्चारणते विघ्न टलैं हैं, अर्थ विचारे सुख होय है, याही ते याकू मंत्रनिमैं प्रधान कह्या है, ऐसैं तो मंत्रके आश्रय महिमा है । बहुरि पंचपरमेष्टीकू नमस्कार यामैं है-ते पंचपरमेष्ठी अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु ये है सो इनिका स्वरूप तौ ग्रंथनिमैं प्रसिद्ध है, तथापि कछू लिखिये है:-तहां यहु अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञकी परंपराकरि सिद्ध आगममैं कह्या है ऐसा षव्यस्वरूप