________________
अष्टपाहुडमें मोक्षपाहुडकी भाषावचनिका।
२८९
___ भावार्थ-इहां मोक्षपाहुडका प्रारंभ है तहां जिननैं समस्त परद्रव्यकू छोडि कर्मका अभावकरि केवलज्ञानानंद स्वरूप मोक्षपद पाया तिस देवकू मंगलकै आर्थ नमस्कार किया सो यह युक्त है, जहां जैसा प्रकरण तहां तैसी योग्यता । इहां भावमोक्षतौ अरहंतकै, अर द्रव्यभावकरि दोऊ प्रकार सिद्ध परमेष्ठीकै है यारौं दोऊ• नमस्कार जाननां ॥१॥ __ आगैं ऐसैं नमस्कार करि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करै है;गाथा—णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं ।
वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥२॥ संस्कृत-नत्वा च तं देवं अनंतवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् ।
वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥२॥ अर्थ-आचार्य कहै है जो-तिस पूर्वोक्त देवकुं नमस्कारकरि अर परमात्मा जो उत्कृष्ट शुद्ध आत्मा ताहि परम योगीश्वर जे उत्कृष्ट योग्य ध्यानके धरनहारे मुनिराज तिनि प्रति कहूंगा, कैसा है पूर्वोक्त देवअनंत अर श्रेष्ठ जो ज्ञानदर्शन ते जाकै पाइये है, बहुरि विशुद्ध है कर्ममलकरि रहित है, अथवा कैसा है परमात्मा अनंत है वर कहिये श्रेष्ठ हे ज्ञान अर दर्शन जामैं. बहुरि कैसा है-परम उत्कृष्ट है पद जाका ॥
भावार्थ-इस ग्रंथमैं मोक्षकू जिस कारण” पावै अर जैसा मोक्षपद है तैसाका वर्णन करियेगा, तिस रीति तिसहीकी प्रतिज्ञा करी है। बहुरि योगीश्वरनिप्रति कहियेगा, याका आशय यह है जो-ऐसे मोक्षपदकुं शुद्ध परमात्माका ध्यान” पाइये है, तहां तिस ध्यानकी योग्यता योगीश्वरनिकै ही प्रधान है, गृहस्थनिकै यह ध्यान प्रधान नाही ॥२॥
आगैं कहै है जो-जिस परमात्माकू कहनेकी प्रतिज्ञा करी है तिसकू योगी ध्यानी मुनि जांणि तिसकू ध्याय परम पद पावै है
भ.व. १९