________________
२००
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
विशुद्धतातैं केवलज्ञान पाया, याकी कथा ऐसैं; – कोई शिवभूति नामा मुनि था सो गुरुनिपासि शास्त्र पढ़े सो धारणा होय नाही, तब गुरुनि यह शब्द पढ़ाया जो " मा रुप मा तुष " सो या शब्दकूं घोखने लगा । याका अर्थ यह जो रोष मति करै तोष मति क ॥
"
भावार्थ — राग द्वेष मति करै यातें सर्व सिद्धि है । तब यह भी शुद्ध यादि न रह्या तब ' तुषमात्र ' ऐसा पाठ घोखने लगा, दोष पदके रुकार तुकार ' विस्मरण होय गये अर तुष माष ऐसा यादि रह्या ताकूं घोखता विचरै । तब कोई एक स्त्री उडदकी दालि धौवैथी ताकूं काहू पूछी, तू कहा करे है -- तब वानैं कही - तुप अर मात्र भिन्न न्यारे न्यारे करूं हूं । तब या मुनि सुनि तुष माष शब्दका भावार्थ यह जान्या जो यह शरीर तौ तुष है अर यह आत्मा माष है, दोऊ भिन्न हैं न्यारे न्यारे हैं, ऐसा भाव जानि आत्माका अनुभव करने लगा, चिन्मात्र शुद्ध आत्माकूं जानि तामैं लीन भया, तब घाति कर्मका नाशकरि केवलज्ञान उपजाया । ऐसें भावनिकी विशुद्धितार्तें सिद्धि भई जानि भाव शुद्ध करनां, यह उपदेश है ॥ ५३ ॥
आ याही अर्थकं सामान्यकरि कहै है:
गाथा - भावेण होइ णग्गो वाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीय पियरं णासह भावेण दव्वेण ॥५४॥ संस्कृत - भावेन भवति नमः बहिर्लिंगेन किं च ननेन । कर्मप्रकृतीनां निकरं नाशयति भावेन द्रव्येण ॥५४॥ अर्थ —भावकरि नग्न होय है बाह्य नग्नलिंगकरि कहा कार्य होय है, नांही होय है जातैं भावसहित द्रव्यलिंगकरि कर्मप्रकृतिके समूहका नाश होय है ॥
१ माकार, ऐसा पाठ सुसंगत है ।