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२२ पंडित जयचंद्रजी छाबड़ा विरचित___ आण: कहैं है, जो ऐसे धष्ट पुरुष आप भ्रष्ट हैं ते धर्मात्मा पुरुषनिकू दोष लगाय भ्रष्ट बता₹ हैं;गाथा-जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी।
तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥९॥ छाया-यः कोऽपि धर्मशीलः संयमतपोनियमयोगगुणधारी ।
तस्य च दोषान् कथयंतः भग्ना भग्नत्वं ददति ॥९॥ अर्थ-जो कोई पुरुष धर्मशील कहिये अपनां स्वरूपरूप धर्म साधनेंका जाका स्वभाव है तथा संयम कहिये इन्द्रिय मनका निग्रह षट् कायके जीवनिकी रक्षा, अर तप कहिये बाह्य आभ्यंतर भेदकरि बारह प्रकार तप, नियम कहिये आवश्यक आदि नित्य कर्म, योग कहिए समाधि ध्यान तथा वर्षाकाल आदि कालयोग, गुण कहिये मूलगुण उत्तरगुण, इनिका धारनेवाला है ता केई मततै भ्रष्ट जीव दोषनिका आरोपण करि कहैं हैं—जो ये भ्रष्ट हैं दोषनिसहित हैं ते पापात्मा जीव आप भ्रष्ट हैं तातें अपना अभिमान पोषनेकू अन्य धर्मात्मा पुरुपनिकू भ्रष्टपणां दे हैं ॥ ___ भावार्थ-पापीनिका ऐसा ही स्वभाव होय है जो आप पापी है तैसैं ही धर्मात्मामैं दोष बताय आप समान किया चाहै है, ऐसे पापीनिकी संगति नहीं करनी ॥९॥
आगें कहैं हैं जो दर्शनभ्रष्ट है सो मूलभ्रष्ट है ताकै फलकी प्राप्ति नाही;गाथा-जह मूलम्मि विणहे दुमस्स परिवार णत्थि परवड़ी।
तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणहा ण सिझंति ॥१०॥