________________
१०८
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचिता
सम्यग्ज्ञान विना हेय उपादेय वस्तुनिका जाननां न होय अर हेय उपादेय जानें विना सम्यकूचारित्र नाही होय है तातें ज्ञानहीकू चारित्र” प्रधानकरि कह्या हैं ॥ ४२ ॥ ___ आगें कहैं जो सम्यग्ज्ञान सहित चारित्र धौर है सो थोरेही कालमैं अनुपम सुखवं पा है;गाथा-चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी ।
पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥४३॥ संस्कृत-चारित्रसमारूढ आत्मनि परं न ईहते ज्ञानी ।
. प्राप्नोति अचिरेण सुखं अनुपमं जानीहि निश्चयतः॥४३ ___ अर्थ--जो पुरुष ज्ञानी है अर चारित्रकरि सहित है सो अपनें आत्मा विर्षे परद्रव्यकू नाही इच्छै हैं परद्रव्यविर्षे राग द्वेषः मोह नाही करै हैं सो ज्ञानी जाकी उपमा नाही ऐसा अविनाशी मुक्तिका सुख पावै है ऐसे हे भव्य ? तू निश्चय नै जानि। इहां ज्ञानी होय हेय उपादेयकू जानि संयमी होय परद्रव्यकू आपमैं न मिलावै सो परम सुख पावै ऐसा जनाया है ॥ ४३ ॥
आगें इष्ट चारित्रके कथनकू संकोचै है गाथा-एवं संखेवेण य भणियं णाणेण वीयराएण ।
___ सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं ॥४४॥ संस्कृत--एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण ।
सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपि उद्देशितं चरणम् ॥४४॥ १-मुद्रित सटीक संस्कृत प्रतिमें 'आत्मनि' इसके स्थानमें अत्मनः ऐसा पाठ है टीकामें अर्थभी आत्मन का ही किया है । देखो, पृष्ठ ५४ ।