Book Title: Ashtpahud
Author(s): Jaychandra Chhavda
Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti

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Page 434
________________ अष्टपाहुडमें शीलपाहुडकी भाषावचनिका । ३९१ गाथा - णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मसहिएण । होदि परिणिव्वाणं जीवाण चरितसुद्धाणं ॥ ११॥ संस्कृत - ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानाम् ११ अर्थ — ज्ञान दर्शन तप ये सम्यत्क्व भावसहित आचरे होय तब चारित्रकरि शुद्ध जीवनिकै निर्वाणकी प्राप्ति होय है ॥ भावार्थ — सम्यक्त्वकरि सहित ज्ञान दर्शन तप आचरै तब चारित्र शुद्ध होय राग द्वेष भाव मिटि जाय तब निर्वाण पावै, यह मार्ग है ॥ ११ ॥ आ याहीकूं शीलप्रधानकरि नियमकरि कहै है:गाथा - - सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धा दिढचरित्ताणं । - णत्थि धुवं णिव्वाणं विसएस विरत्तचित्ताणं ॥१२॥ संस्कृत - शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढचारित्राणाम् । अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥ १२॥ अर्थ —— जे पुरुष विषयनिविषै विरक्त है चित्त जिनिका ऐसे हैं अर शलिकूं राखते संते हैं अर दर्शनकरि शुद्ध हैं अर दृढ है चारित्र जिनिका ऐसे पुरुषनिकै ध्रुव कहिये निश्चयतैं नियमतैं निर्वाण होय है ॥ भावार्थ — जो विषयनितैं विरक्त होनां है सो ही शीलकी रक्षा है, ऐसें जे शलिकी रक्षा करें हैं तिनिहीकै सम्यग्दर्शन शुद्ध होय है अर चारित्र अर्ताचार रहित शुद्ध दृढ होय है ऐसे पुरुषनिकै नियमकार निर्बाण हो है । अर जे विषयनि विषै आसक्त हैं तिनिकै शीलबिगडै तब दर्शन शुद्ध न होय चारित्र शिथिल होय तब निर्वाणभी न होय, ऐसें निर्वाण मार्ग मैं शीलही प्रधान है ॥ १२ ॥

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