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७४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित___आगे कहे है जो स्त्री भी दर्शनकरि शुद्ध होयतौ पापरहित है भली है गाथा—जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता ।
घोरं चरिय चरितं इत्थीसु ण पावयाँ भणिया॥२५॥ संस्कृत-यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता ।
घोरं चरित्वा चरित्रं स्त्रीषु न पापका भणिता ॥२५॥ अर्थ-स्त्रीनि विर्षे जो स्त्री, दर्शन कहिये यथार्थ जिनमतकी श्रद्धा करि शुद्ध है सोभी मार्गकरि संयुक्त कही है जो घोर चारित्र तीव्र तपश्चरणादिक आचरणकरि पाप” रहित होय हैं तातैं पापयुक्त न कहिये ॥ ___ भावार्थ-स्त्रीनि विषै जो स्त्री सम्यक्त्वकरि सहित होय अर तपश्चरण करै तौ पापरहित होय स्वर्ग• प्राप्त होय है तातै प्रशंसायोग्य है अर स्त्रीपर्यायतैं मोक्ष नाहीं ॥ २५ ॥
आगैं कहै है जो स्त्रीनिकै ध्यानकी सिद्धिभी नही है:------ गाथा-चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण ।
विजदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया झाणा ॥२६॥ संस्कृत-चित्ताशोधि न तेषां शिथिलः भावः तथा स्वमावेन ।
विद्यते मासा तेषां स्त्रीषु न शंकया ध्यानम् ॥२६॥ __ अर्थ—तिनि स्त्रीनिकै चित्तकी शुद्धिता नांही है तैसेंही स्वभावही करि तिनि कै ढीला भाव है शिथिल परिणाम है बहुरि, तिनि के मासा कहिये मासमासमैं रुधिरका स्राव विद्यमान है ताकी शंका रहै है ताकरि स्त्रीनिविर्षे ध्यान नांही है ॥
भावार्थ--ध्यान होय है सो चित्त शुद्ध होय दृढ परिणाम होय काहू तरहकी शंका न होय तब होय है सो स्त्रीनिके तीही कारण नाहीं
(१) मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें इस पदकी संस्कृत 'प्रव्रज्या' कीहै श्रीयुत सागर सूरिने भी 'प्रव्रज्या' ही लिखी है।