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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
पदार्थनिकी उपलब्धि होतैं श्रेय कहिये कल्याण अर अश्रेय कहिये अकल्याण इनि दोऊनिकूं जानिये हैं ॥
भावार्थ — सम्यग्दर्शन विना ज्ञानकूं मिथ्याज्ञान कया है तातैं सम्यग्दर्शन भये ही सम्यग्ज्ञान होय है अर सम्यग्ज्ञानतैं जीव आदि पदार्थनिका स्वरूप यथार्थ जानिये है, बहुरि जब पदार्थनिका यथार्थ "स्वरूप जानिये तब भला बुरा मार्ग जानिये है । ऐसें मार्गके जाननें मैं भी सम्यग्दर्शनही प्रधान है ॥ १५ ॥
आगैं कल्याण अकल्याणकूं जानें कहा होय है, सो कहैं हैं ;गाथा - सेयासेयविदण्हू उध्दुददुस्सील सीलवंतो वि ।
सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥ १६॥ संस्कृत - श्रेयोऽयवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि ।
शीलफलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम् १६ अर्थ — कल्याण अर अकल्याण मार्गका जाननेवाला पुरुष है सो * उद्धददुस्सील' कहिये उडाया है मिथ्यात्वस्वभाव जाने ऐसा होय है, बहुरि ' सीलवंतो वि ' कहिये सम्यक् स्वभावयुक्त भी होय है, बहुरि तिस सम्यक् स्वभावका फलकरि अभ्युदय पावै है तीर्थकर आदि पद पावै है, बहुरि अभ्युदय भये पीछे निर्वाणकूं पावै है |
भावार्थ - भला बुरा मार्ग जानैं तब अनादि संसारत लगाय मिथ्याभावरूप प्रकृति है सो पलटि सम्यक्स्वभावस्वरूप प्रकृति होय, ति प्रकृतितैं विशिष्ट पुण्य बांधै तब अभ्युदयरूप पदवी तीर्थंकर · आदिकी पाय निर्वाण पावै है ॥ १६ ॥
आगैं हैं हैं जो ऐसा सम्यक्त्व जिनवचनतैं पाइये है तातैं ते ही सर्व दुःख हरण हारे हैं; -