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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
जेता अंशा निवृत्ति है ताका फल बंध नाही है, ताका फल कर्मकी एक देश निर्जरा है । अर सर्व कर्मते रहित अपनां आत्मस्वरूप होनां सो निश्चय चारित्र है ताका फल कर्मका नाशही है, सो यह पुण्य पापके परिहाररूप निर्विकल्प है, पापका तो त्याग मुनिकै है ही, अर पुण्यका त्याग ऐसैं जो-शुभ क्रियाका फल पुण्य कर्मका बंध है ताकी वांछा नांही है; बंधके नाशका उपाय निर्विकल्प निश्चय चारित्रका प्रधान उद्यम है । ऐसैं इहां निर्विकल्प पुण्य पापकरि रहितं ऐसा निश्चय चारित्र कह्या है । चौदहवें गुणस्थानके अंतसमय पूर्ण चारित्र होय है, तिसतै लगताही मोक्ष होय है ऐसा सिद्धांत है ॥ ४२ ॥ ___ आगें कहै है जो-ऐसे रत्नत्रयसहित भया तप संयम समिति पालता शुद्धात्माकू ध्यावता मुनि निर्वाण पावै है;गाथा जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए ।
सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ॥४३॥ संस्कृत-यः रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या ।
सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम्॥४३॥ अर्थ-जो मुनि रत्नत्रयसंयुक्त भया संता संयमी अपनी शक्तिसार तप करे हे सो शुद्ध आत्माकू ध्यावता संता पर मपद जो निर्वाण ताहि पावे है ॥
भावार्थ-जो मुनि संयमी पंच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार चारित्र सोही प्रवृत्तिरूप व्यवहार चारित्र संयम ताकू अंगीकार करि अर पूर्वोक्त प्रकार निश्चय चारित्रकरि युक्त भया अपनी शक्तिसारू उपवास कायक्लेशादि बाह्य तप करै है से मुनि अन्तरंग तप जो ध्यान ताकरि शुद्ध आत्माकू एकाग्र चित्तकरि ध्यावता सन्ता निर्वाणकू पावै है ॥ ४३ ॥