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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
कहिये रक्त कमल सारिखे कोमल जिनिके चरण हैं, ऐसे अन्यके नाही; ता” सर्वकरि सराहने योग्य हैं पूजने योग्य हैं । बहुरि याका दूजा अर्थ ऐसा भी होय है--जो रक्त कहिये रागरूप आत्माका भाव उत्पल कहिये दूर करनां ताविषै कोमल कहिये कठोरतादिदोपरहित अर सम कहिये राग द्वेष करि रहित पाद कहिये वाणीके पद जिनिके, कोमल हित मित मधुर राग द्वेषरहित जिनिके बचन प्रः हैं तिनितें सर्वका कल्याण होय है ॥ __भावार्थ-ऐसे वर्द्धमानस्वामाकू नमस्काररूप मंगलकरि आचार्य शीलपाहुड ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करी है ॥ १ ॥
आणु शीलका रूप तथा यातॆ गुण होय हैं सो कहैं हैं;-- गाथा-सीलस्स य णाणस य णत्यि विरोहो बुधेहिं णिदिहो।
__णवरि य सीलेण विणा विसया णा विणासंति ॥२॥ संस्कृत-शीलस्य च ज्ञानस्य च नास्ति विरोधो बुधैः निर्दिष्टः ।
केवलं च शीलेन विना विषयाः ज्ञानं विनाशयति २ __ अर्थ-शीलकै अर ज्ञानकै ज्ञानीनि विरोध न कया है ऐसा नाही जहां शील होय तहां ज्ञान न होय अर ज्ञान होय तहां शील न होय । बहुरि इहां णवरि कहिये विशेष है सो कहै है—शील विना विषय कहिये इंद्रियनिके विषय है ते ज्ञानकू विनाशैं हैं नष्ट करें हैं ज्ञानकें मिथ्यात्व रागद्वेषमय अज्ञानरूप कर है । इहां ऐसा जाननां जो-शीलनाम स्वभावका प्रकृतिका प्रसिद्ध है, तहां आत्माका सामान्यकरि ज्ञान स्वभाव है । तहां इस ज्ञानस्वभावमैं अनादिकर्म सयोग मिथ्यात्व रागद्वेषरूप परिणाम होय हैं सो यह ज्ञानकी प्रकृति कुशीलनाम पाव है यारौं संसार निपजै है, तातैं याकू संसार प्रकृति कहिये इस प्रकृतिकू अज्ञानरूप कहिये