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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
संस्कृत - भावश्रमणश्च धीरः युवतिजनवेष्टितः विशुद्धमतिः । नाम्ना शिवकुमारः परित्यक्तसांसारिकः जातः ।। ५१॥ अर्थ - शिवकुमारनामा भावश्रमण स्त्रीजनकरि बेढ्या हुवा संता भी विशुद्धबुद्धिका धारक धीर संसारका त्यागनवारा होत भया ||
भावार्थ - शिवकुमार भावकी शुद्धताकरि ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्माली देव होय तहां चय जंबूस्वामी केवली होय मोक्ष पाई, ताकी कथा ऐसें इस जंबूद्वीप पूर्वविदेह पुष्कलावती देश बीतशोकपुरविर्षै महापद्मराजा वनमाला राणीकै शिवकुमारनामा पुत्र होता भया सां एकदिन मित्रसहित वनक्रीडा करि नगर मैं आवै था सो मार्गमैं लोककूं पूजाकी सामग्री ले जाता देख्या तब मित्रकूं पूछी — ये कहां जाय हैं, तब मित्र कही जो सागरदत्तनामा मुनि ऋद्धिधारीकूं बनमैं पूजने जाय हैं, तब शिवकुमार मुनि पासि जाय अपना पूर्वभव सुनि संसारसूं विरक्त होय दीक्षा लई, अर दृढधरनामा श्रावककै घर प्रासुक आहार लिया, ता पीछें स्त्रीनि कै निकट असिधाराव्रत परम ब्रह्मचर्य पालता संता बारह वर्ष तांई तपकरि अंतसंन्यास मरणकार ब्रह्मकल्पविषै विद्युन्मालीदेव भ्या, तहांतें चयकरि जंबूकुमार भया सो दीक्षा लेय केवलज्ञान पाय मोक्ष गया । ऐसैं शिवकुमार भावमुनि मोक्ष पाई, याकी विस्तारसहित कथा जंबूचरित्र में है तहांतैं जाननीं; ऐसैं भाव लिंग प्रधान है ॥ ५१ ॥
आगैं शास्त्र भी पढै अर सम्यग्दर्शनादिरूप भाव विशुद्ध न होय तौ सिद्धिकूं न पावै, ताका उदाहरण अभव्यसेनका कहै है; - गाथा - केवलि जिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं । पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥ ५२॥
१ - मुद्रिक संस्कृत सटीक प्रतिमें यह गाथा इस प्रकार है;गाथा - अंगाई दस य दुण्णि य चउदसपुव्वाई सयलसुयणाणं । पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ॥ ५२ ॥ संस्कृत - अंगानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । पठितश्च भव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ॥ ५२ ॥