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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
समझिवो ही करनां किछु ज्ञानका लेश पाय उद्धत नहीं होना, अबार इस कालमैं अल्पज्ञानी बहुत हैं यातें तिनितैं किछू अधिक अभ्यास कर तिनिमैं महंत बणि उद्धत भये मद आवै तब ज्ञान थकित होय जाय अर विशेष समझनेकी अभिलाष नहीं रहै तब विपर्यय होय यद्वा तद्वा कहै तब अन्य जीवनिकै विपर्यय श्रद्धान होय तब आपकै अपराधका प्रसंग आवै; तातैं शास्त्रकूं समुद्र जानि अल्पज्ञरूप ही अपनां भाव राखनां तातैं विशेष समझनेंकी अभिलाषा बनी रहे तातैं ज्ञानकी वृद्धि होय है, अर अल्पज्ञानीनिमैं बैंठि महंत बुद्धि राखै तब अपना पाया ज्ञान भी नष्ट होय है, ऐसैं जाननां; अर निश्चय व्यवहाररूप आगमकी कथनी समझ करि ताका श्रद्धान करि यथाशक्ति आचरण करनां इस काल मैं गुरुसंप्रदायविनां महंत नहीं वणनौ जिन आज्ञा नहीं लोपणीं । -कई कहैं हैं - हम तौ परीक्षा करि जिनमतकूं मानेंगें ते वृथा वर्के हैंस्वल्पबुद्धीका ज्ञान परीक्षा करने लायक नांहीं. आज्ञाकूं प्रधान राखि वर्णै जेती परीक्षा करनें में दोष नांही, केवल परीक्षाही कूं प्रधान राखनें मैं जिनमत तैं च्युत होय जाय तौ बड़ा दोष आवै तातैं जिनिकै अपने हित अहित पर दृष्टि हैं ते तो ऐसैं जानौं । अर जिनिकं अल्पज्ञानीनिमै महंत वणि अपने मान लोभ बढाई विषय कषाय पोषने होय तिनिकी कथा नाहीं, ते तो जैसे अपने विषय कषाय पोषेंगे तैसें करेंगे तिनिकूं मोक्षमार्गका उपदेश लागै नांही, विपर्यस्तकं काहेका उपदेश ? ऐसैं जाननां ॥ ६ ॥
आगे कहै है जो सूत्रके अर्थ पदतें भ्रष्ट है ताकूं मिध्यादृष्टी जाननां;
गाथा - सूत्तत्थपयविणट्ठो मिच्छादिठ्ठी हु सो मुणेयब्बो । खेडे विण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स ॥ ७ ॥