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पंडित जयचंद्रची छावड़ा विरचित
गाथा-रागो करेदि णिचं महिलावग्गं परं च दूसेइ। .
दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो १७ संस्कृत-रागं करोति नित्यं महिलावर्ग परं च दृषयति ।
दर्शनज्ञानविहीनः तियग्योनिः न सःश्रमणः॥१७॥ __ अर्थ-जो लिंग धारण करि स्त्रीनिके समूहनि प्रति तो निरंतर रागप्रीति करै है अर पर जो अन्य कोई निर्दोष है तिनिळू दूषै है दूषण दे है कैसा है सो दर्शन ज्ञानकरि हीन है, ऐसी लिंगी तिर्यंचयोनि है पशुसमान है अज्ञानी है, श्रमण नाही ॥ __ भावार्थ--लिंग धारण करै ताकै सम्यग्दर्शन ज्ञान होय है, अर परद्रव्यनि” राग द्वेष न करनां ऐसा चारित्र होय है । तहां जो स्त्रीसमूहनितें तौ रागप्रीति करै है अर अन्या दूषण लगाय द्वेष करै है व्यभिचारीकासा स्वभाव है तौ ताकै काहेका दर्शन ज्ञान ? अर काहेका चारित्र ? लिंगधार लिंगकै करनेयोग्य था सो न किया तब अज्ञानी पशु समानही है श्रमण कहावै है सो आपभी मिथ्यादृष्टी है अर अन्यकू मिथ्यादृष्टी करनेवाला है, ऐसेका प्रसंग युक्त नाही ॥ १७॥ __ आU फेरि कहै है;गाथा--पव्वज्जहीणगहिणं णेहिं सीसम्मि बट्टदे बहुसो ।
आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो १८ संस्कृत-प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वत्तते बहुशः ।।
आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः॥१८॥ अर्थ-जा लिंगीकै प्रव्रज्या जो दीक्षा ताकरि रहित जे गृहस्थ तिनिपरि अर शिष्यनिवि स्नेह बहुत वत्तै अर आचार कहिये मुनिनिकी क्रिया अर गुरुनिका विनयकरि रहित होय सो तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नांही है ॥