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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका। ७९ कारण है ऐसा चारित्र है ताका पाहुड कहिये प्रामृत ग्रंथ कहूंगा, ऐसैं आचार्य मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी है ॥ १-२॥
आगैं सम्यग्दर्शनादि तीन भावनिका स्वरूप कहें हैं;गाथा—जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं ।
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥३॥ संस्कृत-यज्जानाति तत् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् ।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रं ॥३॥ अर्थ---जो जानैं सो ज्ञान है बहुरि जो देखै सो दर्शन है ऐसैं कह्या है बहुरि ज्ञान अर दर्शनका समायोग” चारित्र होय है ॥ ___ भावार्थ--जानैं सो तौ ज्ञान अर देखै श्रद्धान होय सो दर्शन अर दोऊ एकरूप होय थिर होनां चारित्र है ॥३॥ ___ कहै है--जो तीन भाव जीवके हैं तिनिकी शुद्धताकै अर्थि चारित्र दोय प्रकार कह्या है;-- गाथा-एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया ।
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं ॥४॥ संस्कृत-एते त्रयोऽपि भावाः भवंति जीवस्य अक्षयाः अमेयाः।
त्रयणामपि शोधनार्थे जिनभणितं द्विविधं चारित्रम् ॥ अर्थ—ये ज्ञान आदिक तीन भाव कहे ते अक्षय अर अनंत जीवके भाव हैं इनिके सोधनेंकै अर्थि जिनदेव दोय प्रकार चारित्र कह्या है ॥
भावार्थ-जाननां देखनां आचरण करनां ये तीन भाव जीवके अक्षयानंत हैं, अक्षय कहिये जाका नाश नहीं, अमेय कहिये अनंत, जाका . (१) मुद्रित संस्कृत सटीक प्रतिमें यह गाथा ४ के नंबरकी है।