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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
आदि विभाव पर्याय हैं, स्वभावपर्याय अगुरुलघु गुणकै द्वारै हानि वृद्धिका परिणमन है। बहुरि पुद्गल द्रव्यकै स्पर्श रस गंध वर्णरूप मूर्तीकपणां तौ गुण है स्पर्श रस गंध वर्णका भेदरूप परिणमन तथा अणुनै स्कंधरूप होनां तथा शब्दबंध आदिरूप होना इत्यादि पर्याय हैं । बहुरि धर्म अधर्म द्रव्यकै गतिहेतुत्व स्थितिहेतुत्वपणां तौ गुण है अर इस गुणके जीव पुद्गलके गति स्थितिके भेदनितें भेद होय ते पर्याय हैं, तथा अगुरुलधु गुणकै द्वारै हानि वृद्धिका परिणमन होय सो स्वभाव पर्याय है । बहुरि आकाशकै अवगाहना गुण है अर जीव पुद्गल आदिके निमित्त” प्रदेश भेद कल्पिये ते पर्याय हैं, तथा हानिवृद्धिका परिणमन सो स्वभाव पर्याय है। बहुरि काल द्रव्यकै वर्त्तना तौ गुण है अर जीव पुद्गलके निमित्ततें समय आदिकल्पना है सो पर्याय है याकू व्यवहार कालभी कहिये है, बहुरि हानि वृद्धिका परिणमन सो स्वभाव पर्याय है। इत्यादि इनिका स्वरूप जिन आगम तैं जानि देखनां जाननां श्रद्धान करना, यातें चारित्र शुद्ध होय है। विना ज्ञान श्रद्धान आचरण शुद्ध नांही होय है, ऐसें जाननां ॥ १८ ॥ ___ आगें कहै है जो ये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीन भाव हैं ते मोहरहित जीवकै होय हैं इनिळू आचस्ता शीघ्र मोक्ष पावै है;-- गाथा--एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स ।
नियगुणमाराहंतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ॥१९॥ संस्कृत-एते त्रयो पि भावाः भवंति जीवस्स मोहरहितस्य।
निजगुणमाराधयन् अचिरेण अपि कर्म परिहरति॥१९॥ अर्थ-ये पूवोक्त सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीन भाव हैं ते निश्चय करि मोह कहिये मिथ्यात्व ताकरि रहित होय तिस जीवकै होय हैं तब