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॥ श्री ॥
अथ लिंगपाहुड ।
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अथ लिंगपाहुडकी वचनिका लिखिए है; - दोहा |
जिनमुद्राधारक मुनी निजस्वरूपकं ध्याय । कर्म नाशि शिवसुख लियो वंदूं तिनिके पांय ॥१॥
ऐसें मंगलकै आर्थ जिनि मुनिनिनैं शिवसुख पाया तीनकूं नमस्कार करि श्रीकुन्दकुन्दआचार्यकृत प्राकृत गाथाबंध लिंगपाहुडनाम ग्रंथ है ताकी देशभाषामय वचनिका लिखिये है; — तहां प्रथमही आचार्य मंगलकै अर्थि इष्टकूं नमस्कारकरि ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा करे हैं;गाथा -काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं ।
वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण ॥ १ ॥ संस्कृत — कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव सिद्धानाम् ।
वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्रं समासेन ॥१॥ अर्थ — आचार्य कहै है जो मैं अरहंतनिकं नमस्कार करि अर तैसें सिद्धनि नमस्कार करि अर श्रमण लिंगका है निरूपण जा मैं ऐसा पाहुडशास्त्र है ताहि कहूंगा ॥
भावार्थ — इस कालमैं मुनिका लिंग जैसा जिनदेव नैं का है तैसा मैं विपर्यय भया ताका निषेध करनेकूं यह लिंग के निरूपणका शास्त्र आचार्यनैं रच्या है, ताकी आदि मैं घातिकर्मका नाशकरि अनंत चतुष्टय
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