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३५२ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितमैं सराहनेयोग्य नाही हे जाते सम्यक्त्वविना बाह्य क्रियाका फल संसारही है ।। ९७ ॥ ___आगें आशंका उपजै है जो सम्यक्त्वबिना बाह्यलिंग निष्फल कह्या तहां जो बाह्यलिंग मूलगुण बिगाडै ताके सम्यक्त्व रहै कि नाही ? ताका समाधानकू कहै है;गाथा-मूलगुणं छित्तण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू ।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराहगो णियदं ॥ संस्कृत-मूलगुणं छित्वा च बाह्यकर्म करोति यः साधुः ।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंगविराधकः नियतं ॥ अर्थ-जो मुनि निम्रत्थ होय मूलगुण धारण करै है तिनिकू छेदनकरि विगाडकरि केवल बाह्यक्रियाकर्म करै है सो सिद्धि जो मोक्ष ताका सुखकू नाही पावै है जाते ऐसा मुनि जिनलिंगका विराधक है। ___ भावार्थ-जिन आज्ञा ऐसी है जो-सम्यक्त्वसहित मूलगुण धारि धन्य जे साधु क्रिया हैं ते करें हैं। तहां मूलगुण अट्ठाईस कहे हैं-पांच महाव्रत ५ पांच समिति ५ पंचइंद्रियनिका निरोध ५ छह आवश्य ६ भूमिशयन १ स्नानका त्याग १ वस्त्रका त्याग १ केशलोंच १ एकबार भोजन १ खड़ा भोजन १ दंतधावनका त्याग १ ऐसैं अट्ठाईस मूलगुण हैं तिनिकू विराधकरि अर कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन कर है तो तिनि क्रियानिकरि मुक्ति न होय है । जातें जो ऐसे श्रद्धान करें जो-हमारै सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिगडै तौ बिगडौ हम मोक्षमार्गीही हैं-- तो ऐसी श्रद्धातें तो जिन आज्ञा भंग करने” सम्यक्त्वकाभी भंग होयहै तब मोक्ष कैसैं होय अर कर्मके प्रवल उदय चारित्र भ्रष्ट होय । अर जिन आज्ञा है तैसा श्रद्धान रहै तौ सम्यक्त्व रहै है, अर मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्वहीतैं मुक्ति नाही, अर सम्यक्त्वविना केवल क्रियाही