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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-छज्जीव षडायदणं णिचं मणवयणकायजोएहिं ।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं ॥१३३॥ संस्कृत--पद्जीवान् पडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगैः ।
कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्व महासत्त्वम् । अर्थ-हे मुनिवर ! तू छहकायके जीवनिर्क दयाकरि, बहुरि छह अनायतनकू परिहरि छोडि, कैसै छोडि-मन वचन कायके योगनिकरि छोडि; बहुरि अपूर्व जो पूर्वं न भया ऐसा महासत्त्व कहिये सर्व जीवनिमैं व्यापक महासत्त्व चेतनाभाव ताहि भाय ॥ ___ भावार्थ---अनादिकालतें जीवका स्वरूप चेतनास्वरूप न जाण्या तातै जीवनिकी हिंसा करी तातें यह उपदेश है जो अब जीवात्माका स्वरूप जाणि छह कायके जीवनिकी दया करि। बहुरि अनादिहीते आप्त आगम पदार्थका अर इनका सेवनेंवालाका स्वरूप जाण्यां नाही तातें अनाप्त आदि छह अनायतन जे मोक्षमार्गके ठिकाणे नाही तिनिळू भले जांणि सेवन किया तातैं यह उपदेश है जो--अनायतनका परिहार करि जीवका स्वरूपका उपदेशक ये दोऊही तैं पूर्वै जाणे नाही भाया नाहीं तातें अब भाय, ऐसा उपदेश है ॥ १३३ ॥
आगैं कहै है जो-जीवका तथा उपदेश करनेवालाका स्वरूप जाण्यां विना सर्वजीवनिके प्राणनिका आहार किया ऐसे दिखावै है,-- गाथा--दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण ।
भोयसुहकारणहं कदोय तिविहेण सयलजीवाणं १३४ १-मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'महासत्त' ऐसा संवेधनपद किया है जिसकी संस्कृत 'महासत्त्व' है।
२–मुद्रित संस्कृत प्रतिमें 'षट्जीवषडायतनानां ' एक पद किया है।