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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
राजाके विनयतें सिद्धि है, केई कहैं हैं सर्वके विनयतें सिद्धि है इत्यादिक विवाद करैं है तिनिके संक्षेपकरि बत्तीस भेद किये है । ऐसें सर्वथा एकांतीनिके तीनसह तरेसठि भेद संक्षेपकार किये हैं, विस्तार किये बहुत हो हैं इनिमैं केई ईश्वरवादी है कई कालवादी हैं, केई स्वभाववादी है, केई विनयवादी हैं, केई आत्मावादी हैं तिनिका स्वरूप गोमट्टसारादि ग्रंथनितैं जाननां, ऐसें मिथ्यात्वके भेद हैं ॥ १३७॥
आगे कहै है— अभव्यजीव है सो अपनी प्रकृतिकं छोड़े नांही ताका मिथ्यात्व मिटै नांही है;
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गाथा - मुयह पयड अभव्वो सुट्ट वि आयणिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्धं पि पिचंताण पण्णया णिव्विसा होंति ॥ १३८ ॥ संस्कृत--न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम् गुडदुग्धमपि पितः न पन्नगाः निर्विषाः भवंति ९३८
अर्थ — अभव्यजीव है सो भलै प्रकार जिनधर्म है ताहि सुणिकरभी अपनी प्रकृति स्वभाव है ताहि न छोडै है, इहां दृष्टांत जे सर्प हैं ते गुडसहित दुग्धकूं पीवते संते भी विषरहित नांही होय हैं ॥
भावार्थ --- जो कारण पाय भी न छूटै ताकूं प्रकृति स्वभाव कहिये है, जो अभव्यका स्वभाव यह है जो अनेकांत है तत्वस्वरूप जा मैं ऐसा वीतरागविज्ञानस्वरूप जिनधर्म मिथ्यात्व का मैंटनेवाला है ताका भलैप्रकार स्वरूप सुणिकरिभी जाका मिथ्यात्वस्वरूप भाव बदल नांही है सो यह वस्तुका स्वरूप है काहूका किया नांही । इहां उपदेश अपेक्षा ऐसैं जाननां जो अभव्यरूप प्रकृति तौ सर्वज्ञगम्य है तथापि अभव्यकी प्रकृति सारिखी प्रकृति न राखणी, मिथ्यात्व छोडनां यह उपदेश है ॥ १३८ ॥