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२१० पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितचारित्ररूप स्वानुभव ताहि न पावै है, कैसा है नग्न—जो जिन भावनाकरि वर्जित है सो॥ ___ भावार्थ-जिनभावना जो सम्यग्दर्शन भावना तिसकरि वर्जित जो जीव है सो नग्न भी रहै तौ बोधि जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग ताकू न पावै है याहीतै संसारसमुद्रमैं भ्रमता संसारहीमैं दुःखकू पावै है तथा वर्तमानमैं भी जो पुरुष नागा होय है सो दुःखही• पावै है, सुख तौ भावमुनि नागा होय ते ही पाबैं हैं ॥ ६८॥ ... आग इसही अर्थकू दृढ करनेंकू कहै है जो द्रव्यनग्न होय मुनि कहावै ताका अपयश होय है;गाथा--अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण ।
पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ॥६९॥ संस्कृत-अयशसां भाजनेन किं ते नग्नेन पापमलिनेन ।
पैशून्यहासमत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन ॥६९॥ अर्थ-हे मुने ! तेरे ऐसे नग्नपणांकरि तथा मुनिपणांकरि कहा साध्य है, कैसा है—पैशून्य कहिये अन्यका दोष कहनेका स्वभाव, हास्य कहिये अन्यका हास्य करना, मत्सर कहिये आपसमानतें ईर्षा राखि परकू नीचा पाडनेकी बुद्धि, माया कहिये कुटिल परिणाम, ये भाव हैं बहुत प्रचुर जामैं, याहीतैं कैसा है पापकरि मलिन है, याहीतैं कैसा है अयश कहिये अपकीर्ति तिनिका भाजन है ॥
भावार्थ-पैशून्य आदि पापनिकरि मैला ऐसा नग्नपणास्वरूप मुनि पणांकरि कहा साध्य है ? उलटा अपकीर्तिका भाजन होय व्यवहारधर्मकी हास्य करावनहार होय है; तातै भावलिंगी होनां योग्य है यह उपदेश है ॥ ६९॥