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५६ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितव्यवहारकरि व्याख्यान ऐसैं है, सो किछू लिखिए हैं;-तहां जब आगमरूप सर्व पदार्थनिका व्याख्यानपरि लगाइये तब तौ वस्तुका स्वरूप सामान्य विशेषरूप अनंतधर्मस्वरूप है सो ज्ञानगम्य है, तिनिमैं सामान्यरूप तौ निश्चयनयका विषय है, अर विशेष रूप जे ते हैं तिनिकू भेदरूपकरि न्यारे न्यारे कहै सो व्यवहारनयका विषय है ताकू द्रव्यपर्याय स्वरूप भी कहिये । तहां जिस वस्तुकू विवक्षित करि साधिये ताके द्रव्य क्षेत्र काल भावकार जो कि सामान्य विशेषरूप वस्तुका सर्वस्व होय सो तौ निश्चय व्यवहार करि कह्या है तैसैं सधै है, बहुरि तिस वस्तुकै किछू अन्य वस्तुके संयोगरूप अवस्था होय तिसकू तिस वस्तुरूप कहनां सो भी व्यवहार है ताळू उपचार ऐसा भी नाम कहिये । याका उदाहरण ऐसा-जैसे एक विवक्षित घटनामा वस्तु परि लगाइये तब जिस घटका द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप सामान्यविशेषरूप जेता सर्वस्व है ते ता कह्या तैसैं निश्चय व्यवहार कार कहनां सो तौ निश्चय व्यवहार है; अर घटकै किछू अन्य वस्तुका लेप करि तिस घटकू तिस नाम करि कहनां तथा अन्य पटादि विषै घटका आरोपण करि घट कहना सो भी व्यवहार है । तहां व्यवहारका दोय आश्रय हैं; एक प्रयोजन, दूजा निमित्त । तहां प्रयोजन साधनेंकू काहू वस्तुकू घट कहनां सो तो प्रयोजनाश्रित है बहुरि काहू अन्य वस्तुके निमित्ततें घटमैं अवस्था भई ताकू घटरूप कहनां सो निमित्ताश्रित है । ऐसैं विवक्षित सर्व जीव अजीव वस्तुनिपरि लगावनां । बहुरि जब एक आत्माहीकू प्रधान करि लगावनां सो अध्यात्म है। तहां जीव सामान्यकुं भी आत्मा कहिये है । अर जो जीव अपनां सर्व जीवनि” भिन्न अनुभव करै ताकू भी आत्मा कहिये है, तहां जब आपकू सर्वते न्यारा अनुभव करि आपापरि निश्चय लगाइये