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अष्टपाहुडमें चारित्रपाहुडकी भाषावचनिका ।
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यह जीव अपना निजगुण जो शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतना ताकू आरा-. धता संता थोरेही कालमैं कर्मका नाश करै है ॥ ___ भावार्थ-निजगुणका ध्यान शीघ्रही केवलज्ञान उपजाय मोक्ष पावै हैं ॥ १९॥ ___ आगें इस सम्यक्त्वचरणचारित्रके कथनकुं संकोचै है;गाथा--संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसोरिमेरुमत्ता णं ।
सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥ २० ॥ संस्कृत-संख्येयामसंख्येयगुणां संसारिमेरुमात्रां णं।
सम्यत्क्वमनुचरंतः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः॥२०॥ __ अर्थ—सम्यत्वकू आचरण करते धीर पुरुष हैं ते संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी कर्मनिकी निर्जरा करें हैं, बहुरि कर्मनिके उदयतें भया संसारका दुःख ताका नाश करें हैं, कैसे हैं कर्म; संसारी जीवनिका मेरु कहिये मर्यादा मात्र है, सिद्ध भये पीछे कर्म नाही है । ___ भावार्थ-इस सम्यत्वके आचरण भये प्रथमकालमैं तौ गुणश्रेणी निर्जरा होय है सो तौ असंख्यातके गुणकाररूप है बहुरि पीछे जेतें संयमका आचरण न होय तेरौं गुणश्रेणी निर्जरा न होय तहां संख्यातका गुणकाररूप होय है तारौं संख्यातगुण अर असंख्यातगुण ऐसैं दोऊ वचन कहे, बहुरि कर्म तो संसार अवस्था है जेतें हैं तिनिमैं दुःखका कारण मोह कर्म है तिसमैं मिथ्यात्व कर्म प्रधान है सो सम्यक्त्व भये मिथ्यात्वका तो अभावही भया अर चारित्रमोह दुःखका कारणहै सो
(१) मुद्रित सटीकसंस्कृत प्रतिमें 'संसारिमेरुमता' इसके स्थानमें 'सासारि मेरुमित्ता ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत 'सर्षपमेरुमात्रां इस प्रकार है ।