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३५४ पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचितहोय तब कर्म न बंधै, पहले कर्म बंधे तिनिकी निर्जरा करि मोक्ष करै है। ऐसैं चेतना उपयोगकै अनुसार फलै, तातें ऐसैं कह्या है जो बाह्य क्रियाकर्म तौ कछू मोक्ष होय है नाही, शुद्ध उपयोग भये मोक्ष होय है । तातें दर्शन ज्ञान उपयोगका विकार मेटि शुद्ध ज्ञान चेतनाका अभ्यास करनां मोक्षका उपाय है ॥ ९९ ॥
आ याही अर्थका फेरि विशेष कहै है;-- गाथा--जदि पढदि बहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहं य
चारितं । तं वालसुद्धं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥१०॥ संस्कृत-यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं
च चारित्रं । तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् १०० अर्थ—जो आत्मस्वभाव विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रानकू पढ़ेगा बहुरि बहुत प्रकार चारित्रकू आचरैगा तौ ते सर्वही बालश्रुत अर बालचारित्र होयगा । जो आत्मस्वभावः विपरीत शास्त्रका पढनां अर चारित्रका आचरनां ये सर्वही बालश्रुत बालचारित्र हैं अज्ञानीकी क्रिया है जाते ग्यारह अंग नव पूर्व पर्यन्त तौ अभव्यजीवभी पढ़े है अर बाह्य मूलगुणरूप चारित्रभी पालै है तौऊ मोक्षकै योग्य नाहीं, ऐसें जाननां ॥१००॥
आगै कहै है जो—ऐसा साधु मोक्ष पावै है:-- गाथा-वेरग्गपरो साहू परदव्यपरम्मुहो य जो हादि।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥१०१॥ गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिओ साहू । झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ॥१०२॥