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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण ।
णादियदि णवं कम्मं णिदिई जिणवरिंदेहिं ॥४८॥ संस्कृत-परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन ।
नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥४८॥ अर्थ----जो योगी ध्यानी परमात्माकू ध्यावता संता वर्ते है सो मलका देनहारा जो लोभकषाय ताकरि छूटिये हैं ताकै लोभ मल न लागैं हैं याही नवीन कर्मका आस्रव ताके न होय यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव कया है ॥ ___ भावार्थ-मुनिभी होय अर परजन्मसंबंधी प्राप्तिका लोभ होय निदान करें ता परमात्माका ध्यान नाही यातें जो परमात्माका ध्यान करै ताकै इस लोक परलोकसंबंधी परद्रव्यका कळू भी लोभ न होय है याहीतें ताकै नवीनकर्मका आस्रव न होय है, यह जिनदेव कही है। यह लोभकषाय ऐसा है जो--दशम गुणस्थान ताई पहुंचि अव्यक्त होय भी आत्माकै मल लगावै है तातें याका काटनाही युक है। अथवा जहां ताई मोक्षकी चाहरूप लोभ रहै तहां तांई मोक्ष न होय तातै लोभका अत्यन्त निषेध हैं ॥ ४८ ॥ ___ आगें कहै है जो ऐसे निर्लोभी होय दृढ सम्यक्व ज्ञान चारित्रवान होय परमात्माकू ध्यावै सो परमपदकू पावै है;-- गाथा-होऊण दिढचरित्तो दिवसम्मत्तेग भावियमईओ।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥४९॥ संस्कृत-भूत्वा दृढचरित्रः दृढसम्यक्त्वेन भावितमतिः ।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥४९॥ अर्थ--ऐसैं पूर्वोक्त प्रकार योगी ध्यानी मुनि दृढसम्यक्त्वकरि भावित है मति जाकी बहुरि दृढ है चारित्र जाकै ऐसा होयकरि आत्माकू ध्यावता. संता परमपद जो परमात्मपद ताकू पावै है ॥