________________
१२२
पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
गाथा-तस्स य करह पणामं सव्वं पुजं च विगय वच्छल्लं.।
जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो ॥ १७ ॥ संस्कृत-तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां च विनयं वात्सल्यम् ।
यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥ १७ ॥ अर्थ---ऐसैं पूर्वोक्त जिनबिंबकू प्रणाम करो बहुरि सर्व प्रकार पूजा करो विनय करो वात्सल्य करो, काहेरौं-जाकै ध्रुव कहिये निश्चयतें दर्शन ज्ञान पाइये है बहुरि चेतनाभाव है ॥
भावार्थ-दर्शन ज्ञानमयी चेतनाभावसहित जिनविंब आचार्य है तिनिकू प्रणामादिक करनां । इहां परमार्थ प्रधान कह्या है तहां जड प्रतिबिंबकी गौणता है ॥ १७ ॥
. आर्गे फेरि कहे है;गाथा--तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छे हि सुद्धसम्मत्तं ।
___ अरहंतमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥ १८ ॥ संस्कृत-तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् ।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च ॥ १८ ॥ अर्थ-जो तप अर व्रत अर गुण कहिये उत्तरगुण तिनिकरि शुद्ध होय बहुरि सम्यग्ज्ञानकारी पदार्थनिकू यथार्थ जानैं बहुरि सम्यग्ददर्शनकरि पदार्था- कू देखै याहीतैं शुद्ध सम्यक्त्व जाकै ऐसा जिनबिंब आचार्य है सो येही दीक्षा शिक्षाकी देनेवाली अरहंतकी मुद्रा है ।।
भावार्थ-ऐसा जिनबिंब है सो जिनमुद्राही है ऐसैं जिनबिंबका स्वरूप कहा ॥ १८ ॥
आगें जिनमुद्राका स्वरूप कहैं हैं॥