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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
हैं, बहुरि याचनाशील कहिये याचना मागनेकाही जिनिका स्वभाव है, बहुरि अधःकर्म जो पापकर्म तावि रत हैं सदोष आहार करें हैं ते मोक्षमार्ग” च्युत हैं ॥
भावार्थ--इहां आशय ऐसा है जो पहलै तौ निथ दिगंबर मुनि भये थे पाठे कालदोष विचारि चारित्र पालनेंकू असमर्थ होय निर्ग्रन्थ लिंगरौं भ्रष्ट होय वस्त्रादिक अंगीकार किया, परिग्रह राखनेलगे याचना करने लगें अधःकर्म औद्दोशिक आहार करनेलगे तिनिका निषेध है ते मोक्षमार्ग” च्युत हैं। पहलैं तो भद्रबाहुस्वामी निर्गन्थ थे। पीछे दुर्भिक्षकालमैं भ्रष्ट होय अर्द्धफालक कहावै थे पीछै तिनिमैं श्वेतांबर भये तिनिमैं तिनि. तिस भेषके पोखनें• सूत्र बनाये तिनिमैं केई कल्पित आचरण तथा तिसकी साधक कथा लिखी । बहुरि इनि सिवाय अन्य भी केई भेष बदले, ऐसैं काल दोषः भ्रष्टनिका संप्रदाय प्रवर्ते हे सो यह मोक्षमार्ग नाही है, ऐसा जनाया है। या” इनिभ्रष्टनिकू देखि ऐसा ही मोक्षमार्ग है, ऐसा श्रद्धान न करनां ॥ ७९ ॥
आगैं कहै है जो मोक्षमार्गी तो ऐसे मुनि हैं;गाथा-णिग्गंथमोहमुक्का बावीसपरीपहा जियकसाया ।
पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥८॥ संस्कृत-निग्रंथाः मोहमुक्ताः द्वाविंशतिपरीषहाः जितकषायाः।
पापारंभविमुक्ताः ते गृहीताः मोक्षमार्गे ॥८॥ अर्थ-जे मुनि निग्रंथ हैं परिग्रहकरि रहित हैं, बहुरि मोह करि रहित हैं काहू परद्रव्यसूं ममत्वभाव जिनिकै नांही है, बहुरि बाईस परीषहनिका सहना जिनिकै पाइये है, बहुरि जीते हैं क्रोधादि कषाय जिनिनँ, बहुरि पापारंभकरि रहित हैं गृहस्थके करनेका आरंभादिक पाप है