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अष्टपाहुड में भावपाहुडकी भाषावचनिका । २२९
आगैं फेरि भावशुद्ध रखनेंकूं ज्ञानका अभ्यास करै है; --- गाथा - सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥ ९७ ॥ संस्कृत-सर्वविरतः अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्वानि | जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ॥ ९७॥
अर्थ — हे मुने तू सर्व परिग्रहादिकतैं विरक्त भया है महाव्रतनिकरि सहित है तौउ भावविशुद्धिकै अर्थि नवपदार्थ सप्त तत्व चउदह जीवसमास चउदह गुणस्थान इनिके नाम लक्षण भेद इत्यादिकनिकी भावना करि ॥
भावार्थ -- पदार्थनिका स्वरूपका चितवन करनां भावशुद्धिका बडा उपाय है तातैं यह उपदेश है । इनिका नाम स्वरूप अन्यग्रंथनितें जाननां ॥ ९७ ॥
आगे भावशुद्धि अर्थ अन्य उपाय कहै है; --
गाथा - णवविहवंभं पयडहि अब्भं दसविहं पमोत्तूण । मेहुणासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ॥ ९८ ॥ संस्कृत — नवविधब्रह्मचर्यं प्रकट्य अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य । मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोऽसि भवार्णवे भीमे ॥ ९८ ॥
अर्थ — हे जीव ! तू नव प्रकार ब्रह्मचर्य है ताहि प्रगटकर भावनिमैं प्रत्यक्ष कर, पूर्वेकहाकरि - दशप्रकार अब्रह्म है ताहि छोड़िकर, ये उपदेश काहे दिया जातैं तू मैथुनसंज्ञा जो कामसवन की अभिलाषा ताविषै आसक्त भया अशुद्ध भावकरि इस भीम भयानक संसार - रूप समुद्रविषै भ्रम्या |