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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित -
आमैं कहै है जो कदाचित् कोई विषयनिसूं विरक्त न भया अर मार्ग विषयनित विरक्त होनें रूपही कहै है ताकूं मार्गकी प्राप्ति होयभी है, अर जो विषयसेवकही मार्ग कहै है तौ ताकै ज्ञानभी निरर्थक है; - गाथा - विससु मोहिदाणं कहिये मग्गं य इदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसीणं गाणं पि णिरत्ययं तेसिं ॥ १३॥ संस्कृत - विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां । उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम् ||१३||
अर्थ — जे पुरुष इष्ट मार्गके दिखावनेवाले ज्ञानी हैं अर विषयनित विमोहित हैं तौऊ तिनिकै मार्गकी प्राप्ति कही है, बहुरि जे उन्मार्गके दिखावनेवाले हैं तिनिका तौ ज्ञान पावनांभी निरर्थक है |
भावार्थ — पूर्वै कह्याथा जो ज्ञानकै अर शीलकै विरोध नांही है अर यह विशेष है जो ज्ञान होय अर विषयासक्त होय ज्ञान विगडै तब शील नांही । अब इहां ऐसें कह्या है जो — ज्ञान पाय कदाचित् चारित्रमोहके उदयतें विषय न छूटै तौ जातैं तिनिमैं विमोहित रहै अर मार्गकी प्ररूपणा विषयनिका त्यागरूपही करै ताकै तौ मार्गकी प्राप्ति होयभी है बहुरि जो मार्गही कं कुमार्गरूप प्ररूपण करै विषय सेवनेक सुमार्ग बतावै तौ ताका तौ ज्ञान पावनां निरर्थकही है, ज्ञान पायभी मिथ्यामार्ग प्ररूपै ताकै ज्ञान काहेका ? ज्ञान मिथ्याज्ञान है । इहां आशय यह सूचै है जो — सम्यक्त्व सहित अविरत सम्यग्दृष्टी है सो तौ भला है जातैं सम्यग्दृष्टी कुमार्ग प्ररूपै नांही, आपकै चारित्रमोहका उदय प्रबल होय तेतैं विषय छूटै नांही तातैं अविरत है; अर, सम्यग्दृष्टी न होय अर ज्ञानभी बडा होय कछू आचारणभी करै विषयभी छोडै अर कुमार्ग प्ररूपै तौ भला नांही ताका ज्ञान अर विषय छोडनां निरर्थक है, ऐसैं जाननां ॥ १३ ॥