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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
__ आगें इस भावपाहुडकू पूर्ण करै है ताका पढने सुननें भावनें का उपदेश करै है,गाथा-इय भावपाहुडमिणं सव्वंबुद्धेहि देसियं सम्मं ।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ॥१६५ संस्कृत-इति भावप्राभृतमिदं सर्वबुद्धैः देशितं सम्यक् । यः पठति शृणोति भावयति सःप्राप्नोति
अविचलं स्थानम् ॥१६५।। अर्थ--इति कहिये या प्रकार या भावपाहुडकू सर्ववृद्ध जे सर्वज्ञदेव 'तिनि. उपदेश्या है सो याकू जो भव्यजीव सम्यक् प्रकार पढ़े सुनें याकू भावै सो शाश्वता सुखका स्थानक जो मोक्ष ताहि पावै है ॥ ___ भावार्थ—यह भावपाहुड ग्रंथ है सो. सर्वज्ञकी परंपराकरि अर्थ ले आचार्यनैं कह्या है तातै सर्वज्ञहीका उपदेश्या है, केवल छद्मस्थहीका कह्या नांही है तातें आचार्य अपनां कर्त्तव्य प्रधानकार न कह्या है।
अर याके पढने सुननेंका फल मोक्ष कह्या सो युक्तही है शुद्धभावतें मोक्ष होय है अर याके पढे शुद्धभाव होय हैं, ऐसैं परंपरा मोक्षका कारण याका पढनां सुननां धारणां भावना करना है । तातै भव्यजीव हैं ते या भावपाहुडकू पढौ सुनौ सुनावी भावी निरंतर अभ्यास करौ ज्यों शुद्धभाव होय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी पूर्णताकू पाय मोक्ष पावौ तहां परमानंदरूप शाश्वतासुखकू भोगवो ॥
ऐसैं श्रीकुंदकुन्दनामा आचार्य भावपाहुडग्रंथ पूर्ण किया ।
याका संक्षेप ऐसा है जो-जीवनामा वस्तुका एक असाधारण शुद्ध अविनाशी चेतनास्वभाव है । ताकी शुद्ध अशुद्र दोय परणति हैं-तहा शुद्धदर्शनज्ञानोपयोगरूप परिणमनां सो तो शुद्ध परिणति है याकू शुद्ध