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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित
कहिये मिथ्यात्वकरि जाका चित्त मलिन है अर क्रोधादि विकाररूप बहुत दोष जामैं पाइये है सो तौ मुनिभेष धारै है तोऊ श्रावकसमानभी नांही है, श्रावक सम्यग्दृष्टी होय अर गृहस्थाचारके पापनिकीर सहित होय तोऊ जिस बराबरि केवल भेषी मुनि नांही है, ऐसैं आचार्य कहै है ॥ १५५॥
आगैं कहै है जो—सम्यग्दृष्टी होयकरि जिनिनें कषायरूप सुभट जीते तेही धीर वीर हैं;गाथा-ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरतेण ।
दुजयपवलबलुद्धरकसायभड णिजिया जेहिं ॥१५६।। संस्कृत ते धीरवीरपुरुषाः क्षमादमखङ्गेण विस्फुरता ।
दुर्जयप्रबलबलोद्धतकषायभटाः निर्जिता यैः॥१५६।। ___ अर्थ-ज्यां पुरुषां क्षमा अर इंद्रियनिका दमन सो ही भया विस्फुरता कहिये सवाया हूवा मलिनता रहित उज्ज्वल तीक्ष्ण खड्ग ताकरि जिनिका जीतनां कठिन ऐसे दुर्जय अर प्रबल वलकरि उद्धत ऐसे कषायरूप सुभटानिकू जीतें ते धीरवीर सुभट हैं, अन्य संग्रामादिकमैं जीते ते कहबेके सुभट हैं ।
भावार्थ-युद्धमैं जीतनेवाले शूरवीर तो लोकमैं बहुत हैं अर जे कषायनिकू जीतें हैं ते विरले हैं ते मुनिप्रधान हैं ते ही शूरवीरनिमैं प्रधान हैं, जे सम्यग्दृष्टी होय कषायानकू जीति चारित्रवान होय हैं ते मोक्ष पावै हैं; यह आशय है ॥ १५६ ।। ___ आगैं कहै है जो-जे आप दर्शन ज्ञान चारित्ररूप होय अन्य... तिनिसहित करें ते धन्य है.--