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अष्टपाहुडमें सूत्रपाहुडकी भाषावचनिका। ५७ तब ऐसैं जो आप अनादि अनंत अविनाशी सर्व अन्य द्रव्यनितें भिन्न एक सामान्य विशेषरूप अनंतधर्मा द्रव्य पर्यायात्मक जीवनामा शुद्ध वस्तु है, सो कैसाक है-शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतनास्वरूप असाधारण धर्मकू लिये अनंत शक्तिका धारक है तामैं सामान्य भेद चेतना अनंत शक्तिका समूह सो द्रव्य है। बहुरि अनंत ज्ञान दर्शन सुख वर्यि ये तो चेतनाके विशेष हैं ते तो गुण हैं अर अगुरुलघु गुणकै द्वारै षट्स्थान पतित हानि वृद्धिरूप परिणमता जीवकै त्रिकालात्मक अनंत पर्याय हैं । ऐसा शुद्ध जीव नामा वस्तु सर्वज्ञ देख्या जैसा आगममैं प्रसिद्ध है सो तो एक अभेद रूप शुद्ध निश्चय नयका विषय भूत जीवै है इस दृष्टि करि अनुभव कीजे जब तौ ऐसा है। अर अनंत धर्मनिमैं भेदरूप कोई एक धर्मकू लेकरि कहनां सो व्यवहार है बहुरि आत्म वस्तुकै अनादिही पुद्गल कर्मका संयोग है ताकै निमित्तविकार भावकी उत्पत्ति है ताके निमित्तौं रागद्वेष रूप विकार होय हैं ताकू विभाव परणति कहिये है, तिस करि फेरि आगामी कर्मकाबंध होय है। ऐसैं अनादि निमित्त नैमित्तिक भाव करि चतुर्गति रूप संसारका भ्रमणरूप प्रवृत्ति होय है तहां जिस गतिकू प्राप्त होय तैसाही जीव नाम कहावै है तथा जैसा रागादिक भाव होय तैसा नाम कहावै बहुरि जब द्रव्यक्षेत्र काल भावकी बाह्य अंतरंग सामग्रीका निमित्त करि अपना शुद्धस्वरूप शुद्धनिश्चयनयका विषय स्वरूप आपकू जानि श्रद्धान करै, अर कर्म संयोगकू अर तिसके निमित्ततें अपने भाव होय हैं तिनिका यथार्थ स्वरूप जानैं तब भेदज्ञान होय तब परभावनितें विरक्त होय तब तिनिका मेंटनेका उपाय सर्वज्ञके आगमतें यथार्थ समाझ ताकू अंगीकार करै तब अपने स्वभावमैं स्थिर होय अनंत चतुष्टय प्रगट होय सर्व कर्मका क्षय करि लोकके शिख