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अष्टपाहुडमें भावपाहुडकी भाषावचनिका । २५१
तहांभी सामायिकका एकदेशही कहिये । बहुरि अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण विषै राग व्यक्त नांही अव्यक्तकषायका सद्भाव है तातैं सामायिक चारित्रकी पूर्णता कही । बहुरि सूक्ष्मसांपराय है सो अव्यक्तकषायभी सूक्ष्म रहिगई। तातैं याका नाम सूक्ष्मसांपराय दिया । बहुरि उपशांतमोह क्षीणमोहविषै कषायका अभावही है तातैं जैसा आत्माका मोहविकाररहित शुद्ध स्वरूप था ताका अनुभव भया तातैं यथाख्यात चारित्र नाम पाया, ऐसैं मोहकर्मके अभावकी अपेक्षा तौ तहांही उत्तरगुणनिकी पूर्णता कहिये परन्तु आत्माका स्वरूप अनंतज्ञानादि स्वरूप है सो घातिकर्मके नाश भये अनंतज्ञानादि प्रगट होय तब सयोगकेवली कहिये तहां भी कछू योगनिकी प्रवृत्ति है या अयोगकेवली चौदमां गुणस्थान है तहां योगनिकी प्रवृत्ति मिटि अवस्थित आत्मा होय जाय है तब चौरासीलाख उत्तरगुणनिकी पूर्णता कहिये । ऐसैं गुणस्थाननिकी अपेक्षा उत्तरगुणनिकी प्रवृत्ति विचारणी । ये बाह्य अपेक्षा भेद है अंतरंग अपेक्षा विचारिये तब संख्यात असंख्यात अनंत भेद होय हैं, ऐसैं जाननां ॥ १२० ॥
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आमैं भेदनिका विकल्प तैं रहित होय ध्यान करनें का उपदेश करे हैं;गाथा - झायहि धम्मं सुकं अट्ट रउदं च झाण मुत्तूण । aer झाइयाई इमेण जीवेण चिरकालं ॥ १२१ ॥ संस्कृत -- ध्याय धर्म्य शुक्लं आत्तं रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा । रौद्रा ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ॥ १२१ ॥ अर्थ — हे मुने ! . तू आर्त्तरौद्र ध्यानकूं छांडि अर शुक्लध्यान हैं तिनिर्हि व्याय जातैं रौद्र अर आर्त्तध्यानतौ या जीवनैं अनादितैं लगाय बहुतकाल ध्याये ॥
भावार्थ- आतरौद्र ध्यान तौ अशुभ हैं संसारके कारण हैं तहां ये दोष ध्यान तौ जीवकै बिना उपदेशही अनादितैं प्रवर्त्ते हैं तातैं तिनिकूं