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पंडित जयचंद्रजी छावड़ा विरचित__ आगें कहैं हैं जो याथाजात रूप• देखि मत्सरभाव करि वन्दना नहीं करें हैं ते मिथ्या दृष्टी ही हैं;गाथा-सहजुप्पण्णं रूवं दहूं जो मण्णएण मच्छरिओ।
सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइडी हवइ एसो ॥२४॥ संस्कृत-सहजोत्पन्न रूपं दृष्ट्वा यः मन्यते न मत्सरी ।
सः संयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिः भवति एषः॥२४॥ अर्थ-जो सहजोत्पन्न यथाजात रूपकू देखि करि न माने है तिसका विनय सत्कार प्रीति नाहीं करैहै अर मत्सरभाव करै है सो संयमप्रतिपन्न है दीक्षाग्रहण करी है तौऊ प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टीहै ॥ २४ ॥ ___ भावार्थ-जो यथाजातरूपकू देखि मत्सरभावकरि ताका विनय नहीं करै तौ जानिये याकै इस रूपकी श्रद्धा रुचि नाहीं ऐसे श्रद्धा रुचि विना तौ मिथ्यादृष्टीही होय । इहां आशय ऐसा जो श्वेतांबरादिक भये ते दिगम्बररूप” मत्सरभाव राखें अर तिसका विनय नहीं करें तिनिका निषेध है ॥२४॥ ___ आगें याहीकू दृढ करें हैं;गाथा-अमराण वंदियाणं रूवं दहण सीलसहियाणं ।
जे गारवं करंति य सम्मत्तविवजिया होंति ॥२५॥ संस्कृत-अमरैः वंदितानां रूपं दृष्ट्वा शीलसहितानाम् ।
ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविवर्जिताः भवंति ॥ अर्थ-शीलकरि सहित देवनिकरि वंदनेयोग्य जो जिनेश्वर देवका यथाजात रूपकू देखिकरि गौरव करें हैं विनयादिक नहीं करें हैं ते सम्यक्त्वकरि वर्जित हैं ।