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पंडित जयचंदजी छावड़ा विरचित
___ भावार्थ-जो बाह्य परिग्रहकू छोडि मुनि होच अर परिग्रहपरिणामरूप अशुद्ध होय अभ्यंतर परिग्रह न छोडै तौ वाह्य त्याग किछु कल्याणरूप फल न करिसकै है, सम्यग्दर्शनादिभाव विना कर्मनिर्जरारूप कार्य न होय है ॥ ५ ॥
पहली गाथा” यामैं यह विशेष हैं जो मुनिपदभी ले अर परिणाम उज्ज्वल न रहै आत्मज्ञानकी भावना न रहै तो करें कटे नाही ।
आगें उपदेश करै है जो भावकू परमार्थ जाणि याह•ि अंगाकार करौ-- गाथा-जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण ।
पंथिय ! सिवपुरिपंथं जिणउवइमु पयत्तेण ॥६॥ संस्कृत–जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन ।
पथिक शिवपुरीपंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ॥६॥ ___ अर्थ-हे मुने ! मोक्षपुरीका मार्ग जिनदेव प्रयत्नकरि उपदेश्या भावही है ताते हे शिवपुरीका पथिक ! कहिये मार्ग चलनेवाला तू भावही• प्रथम जाणि परमार्थभूत जाणि, भावरहित द्रव्यमात्र लिंगकरि तेरै कहा साध्य है किछू भी नाही ॥ .. भावार्थ-मोक्षमार्ग जिनेश्वरदेव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आत्मभावस्वरूप परमार्थकरि कह्या है ता” याहाकू परमार्थ जानि अंगीकार करनां केवल द्रव्यमात्र लिंगकरि कहा साध्य है ऐसे उपदेश है
आमैं कहै है जो द्रव्यलिंग आदि तैं बहुत धारे तिनि” किछु सिद्धि न भई;गाथा—भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे ।
गहिउझियाई बहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाई ॥ ७॥